‘यादों के दरीचे’ – 17वीं कड़ी:.

साठ के दशक में जब गंगापुर सिटी के निवासी रामलीला, रासलीला, नौटंकी आदि से मनोरंजन किया करते थे तो अग्रवाल समाज के सामाजिक नाटकों ने यहां के जन मानस में नई चेतना फूंकी थी। प्रतिवर्ष होने वाले इस आयोजन में गंगापुर के आस पास लोग भी बड़े चाव से उन नाटकों का लुत्फ लिया करते थे। ‘अपना खून’, ‘धरती की बेटी’, ‘जमाना जागेगा,’ ‘संतान की माया’ आदि चर्चित ड्रामे थे। ‘धरती की बेटी’ के लेखक गोर्वद्धन लाल गर्ग ‘एडवोकेट’ ने उन दिनों की याद करते हुए बताया कि उन्होंने उसकी स्क्रिप्ट को 24 घंटे के अंदर लिख कर दिया था और उस नाटक को इतना पसंद किया गया था कि अग्रवाल समाज द्वारा सवाई माधोपुर में भी उसे उनके निर्देशन में खेला गया था। 1977 में ‘धरती की बेटी’ पुस्तक के रूप में छपा तथा राजस्थान, हरियाणा और चैन्नई के शिक्षा विभागों ने उसे क्रय हेतु स्वीकृत किया था। रघुवीर शरण ‘सरल’ ने भी ‘अग्रचेता अग्रसेन एवं अन्य एकांकी’ नाम से एक लघु पुस्तिका का प्रकाशन किया था। नाटकों के उस दौर में एक अन्य चर्चित नाटक ‘आधुनिक लक्ष्मण परशुराम संवाद’ को सामुदायिक विकास संगठन के सदस्यों द्वारा मिडिल स्कूल नं. 1 के प्रांगण में 19 अक्टूबर 1974 को अभिनीत किया गया था। इसी क्रम में गंगापुर में नाट्य विधा के आधार दो व्यक्तियों का जिक्र किए बिना बात अधूरी ही रहेगी। रघुवीर शरण सरल तथा बृजमोहन भगत। इन्होंने अभिनय के साथ अपनी विधाओं में रचनाएं भी की थीं। उन नाटकों की व्यवस्था का भार चतुर्भुज सिंघल उत्साहपूर्वक उठाया करते थे। अग्रवाल समाज द्वारा मंचित ड्रामों के दो चित्र एवं ‘धरती की बेटी’ पुस्तक के आवरण का एक चित्र भी हम यहां प्रकाशित कर रहे हैं। इसके साथ ही प्रस्तुत है, यादों के दरीचे की 17वीं कड़ी:.

प्रभाशंकर उपाध्याय, साहित्यकार

बहरहाल, अंतिम वर्ष के अध्ययन के दौरान इन दो झंझावातों से जूझकर मैंने परीक्षा दी। परीक्षा परिणाम आया और मैं उत्तीर्ण भी हुआ लेकिन डिवीजन बिगड़ गया। इसके बावजूद एम.एस.सी. में उसी कॉलेज में मेरा प्रवेश आसानी से हो सकता था किन्तु माता पिता ने इजाजत देने से यह कहकर मना कर दिया कि अब तुझे कहीं बाहर जाने नहीं देंगे। अत: उसके बाद मैंने प्राइवेट परीक्षार्थी के तौर पर पत्रकारिता में पोस्टग्रेजुएट डिप्लोमा किया तत्पश्चात् हिन्दी विषय में एम.ए. किया।
कॉलेज जीवन के दौरान ही गंगापुर से जुड़ी एक सार्वजनिक घटना का जिक्र कर देना समीचीन होगा। छुट्टियों में जब हम गंगापुर आते थे तो वहां दो जगहों पर मेरे सहपाठी और मित्रगण अक्सर मिल जाया करते थे। चौकवाले बालाजी तथा नेहरू गार्डन। अवकाश के दिनों में चौकवाले बालाजी के दर्शन के बाद प्राय: हम मित्रगण नेहरू गार्डन में जा बैठते थे। एक दफा जब हम चार-पांच मित्र उस उद्यान में बैठे थे तो मैंने अपने मलेरिया बिगडऩे का जिक्र करते हुए कहा कि बाहर रह कर बीमार होने पर कितना अकेलापन सहना होता है। इसे मैंने महीनों तक भुगता है।
काश! गंगापुर में ही कॉलेज होता तो कम से कम अपने परिवार की देखभाल के बीच तो रहता। मेरे साथी मेरी बात से पूर्णतया सहमत थे। बात जब निकली तो मुझे मालूम न था कि इतनी दूर तक जाएगी? कुछ देर के विमर्श के बाद यह तय हो गया कि गंगापुर में कॉलेज तो होना ही चाहिए और उसके लिए युवा लोगों को ही आगे आना होगा क्योंकि राजनेताओं से उम्मीद करना बेमानी था किन्तु, यह समझ नहीं आ रहा था कि हमें आगे आने के लिए क्या कदम उठाना चाहिए? इस मामले में हम पांचों दिशा विहीन थे। तभी किसी ने एक विचार यह रखा कि परसों सायं इसी पार्क में एक मीटिंग आयोजित की जाए और विषय हो- ‘गंगापुर में कॉलेज की स्थापना ‘। उस मीटिंग की सूचना कल अग्रवाल समाज द्वारा मंचित किए जा रहे, नाटक में प्रसारित की जाए। उन दिनों अग्रवाल समाज के सामाजिक नाटकों को देखने के लिए लगभग सारा शहर ही उमड़ पड़ता था। नजदीकी क्षेत्रों से भी दर्शक आते थे। अत: सूचना संप्रेषित करने का वह, सबसे सशक्त मंच था। अब, सवाल यह उठ खड़ा हुआ कि उस सूचना को मंच पर पढे कौन? इस मामले में भी हम लोग अनाड़ी थे। तभी युवा वकील राजेन्द्र प्रसाद शर्मा वहां आ गए। उनका मकान पार्क के सामने ही है और वे शायद सायं की चहल कदमी को गार्डन में आए थे। हमने उनके पास जाकर उनकी राय जानी तो वे हमारा विचार सुनकर उछल पड़ेए ‘वाह! यह तो कमाल का आइडिया है।’ मैंने कहा, फिर देर किस बात की भाई साहब! आप ही इसका अच्छा सा मैटर बना कर नाटक के इंटरवल में पढ दीजिए और फिर देखते हैं गंगापुर की जनता क्या रेसपोंस देती है’ बहरहाल, वकील साहब ने कागज कलम लिया और वहीं के वहीं, बिजली के खंबे की रोशनी में मंच पर पढने वाली सूचना तैयार की। दूसरे दिन, हम चल दिए उस ओर जहां नाटक मंचित होना था। नाटक प्रारंभ हुआ चाहता था कि हमने सरल साहब से निवेदन किया कि हमें इस मंच के माध्यम से गंगापुर की जनता को एक सूचना देनी है। पहले तो वे साफ मुकर कर गए लेकिन जब हमने उन्हें विषय वस्तु बतायी तो वे मध्यांतर के समय हमारे प्रतिनिधि को पांच मिनट बोलने देने के लिए राजी हो गए। राजेन्द्रजी वकील साहब ने बड़े ही प्रभावशाली अंदाज से उस संदेश को पढा। इस तरह वहां उपस्थित आम जन को वह सूचना संप्रेषित हुई। दूसरी सायं। गंगापुर सिटी के उस नेहरू पार्क में हमारी आशा के विपरीत इतने लोग आए कि तिल धरने तक को जगह नहीं बची थी। पार्क के बाहर तक भी पब्लिक जमा थी। नागरिकों में कॉलेज की मांग के प्रति अपूर्व उत्साह था। यह देख वहां उपस्थित नागरिकों बीच से एक कॉलेज संघर्ष समिति का गठन हुआ और सरकार का ध्यान इस ओर आकर्षित करने के लिए एक दिन की सांकेतिक हड़ताल करने का निर्णय लिया गया। उस संघर्ष समिति में इस नाचीज को भी चुना गया था। – प्रभाशंकर उपाध्याय, साहित्यकार