“राघव तुम्हारी यादें आज भी सताती हैं।” – डाॅ. रांगेय राघव की 98 वीं जयन्ती पर विशेष”

आगरा, भरतपुर एंव कस्बा वैर की साहित्य लेखन में विश्व में कायम की पहचान। 

वैर (मुरारी शर्मा एडवोकेट )। उत्तरप्रदेश एवं ब्रज अंचल की यमुना नदी किनारे आगरा की धरा में जन्मे रांगेय राघव पर ज्ञान की देवी मां सरस्वती की आसीम कृपा थी, जो दक्षिणी भारतीय परिवार के सदस्य होते हुए भी हिन्दी जगत में आगरा, भरतपुर, वैर की साहित्य, कहानी, लेखन, कवि आदि क्षेत्र में भारत देश में ही नही विश्व में अलग से पहचान कायम कराई। भरतपुर जिले के कस्वा वैर के सहज, सादे ग्रामीण अंचल में रचनात्मक साहित्य का आकार गढना प्रारम्भ किया। जब देश आजादी के लिए संघर्ष कर रहा था, तब इनकी सृजन-शक्ति अपने प्रकाशन का मार्ग तलाश रही थी, जिन्होने अनुभव किया कि मातृभाषा हिन्दी से देशवासियों के मन में देश के प्रति निष्ठा औा स्वतंत्रता का संकल्प जगाया जा सकता है। अल्पायु में ही एक साथ उपन्यास, कहानी, निबन्ध, नाटक, कविता पाठ आदि के धनी हो गए। 39 साल के जीवन में 150 से अधिक पुस्तके लिख दी। जिन्हे स्वयं के जीवन के अन्तिम दिन भी याद था, जो केवल कृतियां लेखन में व्यस्त रहते। उनका अन्तिम उपन्यास आखिरी आवाज है। जिसे पढकर पाठक की आंखें आज भी नम हो जाती है। जिनके ज्ञान का भण्डार भारत सहित अनेक देशों की प्रसिद्व शिक्षण संस्थान एवं पुस्तकालयों में मौजूद है, जिन्हे लोग आज भी पढना पसन्द करते है।

ताज की नगरी में हुआ जन्म

साहित्यकार रांगेय राघव का जन्म 17 जनवरी 1923 को आगरा में हुआ, जो मूलरूप से आन्ध्रप्रदेश प्रान्त के तिरूपति परिवार के सदस्य थे, जिनके पूर्वज करीब 300 साल पहले जयपुर और फिर भरतपुर जिले के कस्बा वैर आकर बस गए, जहां पूर्वज वैर स्थित श्री सीताराम मन्दिर की पूजा-पाठ करते थे। रंगाचार्य सहित अन्य पूर्वज भी बडे विद्वान रहे। पिता का नाम रंगाचार्य, माता का नाम श्रीमती कनकवल्ली और धर्मपत्नी का सुलोचना था। इनका मूल नाम तिरूमल्लै नंबाकम वीर राघव आचार्य था। लेकिन उन्होने अपना साहित्यिक नाम रांगेय राघव रखा। ये गौर वर्ण, उन्नत ललाट, लम्बी नासिका, चेहरे पर मुस्कान बिखेरे हुए हिन्दी साहित्य के अनन्य उपासक थे। वे रामानुजाचार्य परम्परा के तमिल देशीय आयगर ब्राह्मण थे। प्राणलेवा असाध्यं बीमारी से ज्ञान के धनी रांगेय राघव ने 12 सितम्बर 1962 को मुम्बई में उपचार के दौरान दम तोड दिया। बिखेरे हुए हिन्दी साहित्य के अनन्य उपासक थे। वे रामानुजाचार्य परम्परा के तमिल देशीय आयगर ब्राह्मण थे। प्राणलेवा असाध्यं बीमारी से ज्ञान के धनी रांगेय राघव ने 12 सितम्बर 1962 को मुम्बई में उपचार के दौरान दम तोड दिया। 

डाॅ.राघव थे छह भाषा के धनी

डाॅ. रांगेय राघव का जन्म हिन्दी प्रदेश में हुआ। उन्हे तमिल, कननड, हिन्दी, अग्रंेजी, ब्रज, संस्कृत आदि भाषा का ज्ञान था, जो इन भाषाओं के धनी रहे। प्रारम्भिक शिक्षा आगरा से प्रारम्भ की । साल 1944 में सेंट जाॅन काॅलेज आगरा से स्नातकोत्तर तथा साल 1949 में आगरा विश्वविद्यालय से गुरू गोरखनाथ पर शोध करके पीएचडी की उपाधी प्रदान की।

जानपीन सीगरेट की धुंआ के शौकिन

डाॅ. रांगेय राघव शाकाहारी थे, जिन्हे सीगरेट पीने का बेहद शौक था, केवल जानपीन सिगरेट ही पीते, दूसरे कम्पनी की सिगरेट को छुआ तक नही। जिनकी मेज पर एक दर्जन जानपीन सिगरेट की डिब्बी हर वक्त रखी रहती थी और ऐश टेª के स्थान पर मिटटी चीनी का प्याला रखा रहता, उसे दिन में कई बार साफ करना पडता, उनक लेखन वाला कमरा सिगरेट की गंध और धुंए से भरा रहता था। किसी भी आंगुन्तक ने आकर उनके कमरा का दरवाजा खोला, तो उसे सिगरेट का एक भभका लगता। हिन्दी साहित्य के साधक डाॅ. राघव को सिगरेट पीना एक आवश्यकता बन गई, जो सिगरेट पिए बिना कुछ भी कर सकने में असमर्थ थे। शायद सिगरेट पीने की लत ही उनकी मृत्यु का कारण बनी।

तपस्वी जैसा जीवन जिए

डाॅ. रांगेय राघव भरतपुर जिले के कस्वा वैर स्थित दक्षिणी शैली का सीताराम का मन्दिर विश्व विख्यात है, जहां डाॅ. राघव के पूर्वज एवं बडे भाई महन्त रहे। आवादी की कोलाहल से दूर, प्राकृतिक वातावरण, ग्रामीण सादगी और संस्कृति तथा वहां के वातावरण की अदभूत शक्ति ने डाॅ. राघव को साहित्य की साधना में प्युक्त किया। जहां मन्दिर की शाला में बिल्कुल तपस्वी जैसा जीवन व्यतीत किया। तमिल भाषी डाॅ. राघव ने हिन्दी साहित्य के देवी की पूजारी की तरह आराधना-अर्चना की। नारियल की जटाओं के गददे पर लेटे-लेटे और पैर के अंगूठे में छत पर टंगे पंखे की डोर को बांधकर हिलाते हुए वह कई घन्टे तक साहित्य की विभिन्न विधाओं अयामों के बारे में सोच-विचार करते थे।  

वैर में लिखा ज्ञान का भण्डार

डाॅ. रांगेय राघव का जन्म भले ही आगरा में हुआ और प्रारम्भिक से लेकर उच्च शिक्षा भी अन्य स्थान पर ली, लेकिन बचपन से ही भरतपुर रियासत के संस्थापक महराजा सूरजमल के चचेरे भाई राजा प्रतापसिंह के गढध्गोपी महाराज की जन्मभूमि एवं सिद्व बाबा मनोहरदास की कर्म व तपोभूमि सहित लघुकाशी के नाम से जाना जाने वाला कस्वा वैर से लगाव रहा, जो उच्च शिक्षा प्राप्ति के बाद कस्वा वैर आए, जहां उन्होने ज्ञान के भण्डार का लेखन प्रारम्भ कर अनेक प्रकार का साहित्य, कहानी, निबन्ध आदि ग्रन्थ व पुस्तके लिख डाली।

ये पुरूस्कार किए हासिल

रांगेय राघव ने साल 1951 में हिन्दुस्तान अकादमी, साल 1954 में डालमिया, साल 1957 एवं 1959 में उत्तरप्रदेश सरकार, साल 1961 में राजस्थान साहित्य अकादमी तथा मरणोपारांत साल 1966 में महात्मा गांधी पुरूस्कार से सम्मानित हुए। इनके अलावा भरतपुर जिले सहित राजस्थान, उत्तरप्रदेश, दिल्ली, आन्ध्रप्रदेश, महाराष्ट्र आदि प्रान्त के समाजसेवी, साहित्य व कहानी के रूचिकारो एवं विभिन्न संगठनों ने सम्मानित किए।

राघव की लेखनी से लिखी गई पुस्तक

कब तक पुकारूॅ, पक्षी और आकाश, विषाद मठ, उबाल, राह न रूकी, बारी बरणा खोल दो, देवकी का बेटा, रत्ना की बात, भारती का सपूत, यशोधरा जीत गयी, घरौंदा, लोई का ताना, लखिमा की आंखे, मेरी भव बाधा हरो, चीवर, राई और पर्वत, आखिरी आवाज, बन्दूक और बीन (उपन्यास), पंच परमेश्वर, अवसाद का छल, गूंगे, प्रवासी, घिंसटत कदम्ब, पेड, नारी का विक्षोम, काई, समुद्र के फेन, देवदासी, कठपुतले, तबेले का धुधलका, जाति और पेशा, नई जिन्दगी के लिए, ऊंट की करवट, बांबी और मन्तर, कुत्ते की दुम और शैतान, जानवर-देवता, अधूरी मूरत (संकलित कहानी), जाबालि-गोवर्धन तीर्थ, संन्यासी ब्राह्मण, राजा की उत्पत्तियां, पुरूष और विश्व का निर्माण, मृत्यु की उत्पत्तियां, वेदव्यास, दुर्वासा, तनु, उपमन्यु आदि (अंतर्मिलन की कहानी), महायात्रा गाथा-अंधेरा रास्ता, महायात्रा गाथा रैन और चंदा के दो-दो खण्ड, जैसा तुम चाहो, हैमलेट, वेनिस का सौदागर, आॅथेलो, निष्फल प्रेम, परिवर्तन, तिल का ताड, तूफान, मैकबेथ, जूलिसय, सीजर, बारहवीं रात (भारतीय भाषा में अनुदित कृतियां), प्राचीन ब्राह्मण कहानियां, प्राचीन टयूटन कहानियां, प्रचीन प्रेम और नीति की कहानियां, संसार की प्राचीन कहानियां आदि उपन्यास, कहानियां, निबन्ध है। इनके अलावा अनेक कृतियां और भी लिखी गई। 

न किसी वाद से बंधे न विधा से

रांगेय राघव का विपुल साहित्य उनकी अभूतपूर्व लेखन क्षमता को दर्शाता है, जिन्हे कृति तैयार करने में समय लगता था, लिखने में समय नही लगता। जिनके संदर्भ बताया जाता है कि जितने समय में कोई व्यक्ति उनकी पुस्तक पढता, उतने समय में वे पुस्तक को लिख सकते थे। जिन्होने प्रगतिशीस लेखक संघ की सदस्यता ग्रहण करने से इंकार कर दिया, क्योकि उन्हे उसकी शक्ति और सामथ्र्य पर भरोसा नही था। साहित्य में वे न किसी से बंधे, न विधा से। ये उपन्यासकार, कहानीकार, निबन्धकार,  नाटककार, कवि, आलोचक थे।  

असत्य का किया विरोध

रांगेय राघव ने कभी असत्य का साथ नही दिया। ये सत्य के धनी भी थे। सत्य को लेकर किसी के सामने नही झुके, चाहे वह कितना भी ताकत व दंबग ही क्यू हो। इनके जीवन में अनेक दिक्कत आई, जो उनकी लेखनी को नही रोक सकी, जिनकी लेखनी ने असत्य को हरा दिया और भारी सख्यां में उनके पाठक एवं विचारधारक बन गए। उन्होने अपने ऊपर मढे जा रहे माक्र्सवाद, प्रगतिवाद और यथार्थवाद आदि का विरोध किया। उन्होने न तो प्रयोगवाद और प्रगतिवाद का आश्रय लिया और न प्रगतिवाद के चोले में अपने को यांत्रिक बनाया। केवल इतिहास को, मनुष्य की पीडा को, मनुष्य की उस चेतना को, जीवन को, जो अंधकार से जुझने की शक्ति रखती है, उसे ही सत्य माना। 

राघव जयन्ती 17 जनवरी को

हिन्दी साहित्य के धनी डाॅ. रांगेय राघव की 98 वीं जयन्ती भरतपुर जिले के कस्वा वैर सहित अनेक स्थान पर मनाई जाऐगी, जिसकी तैयारियांे में डाॅ. राघव के परिजन एवं शिक्षण व समाजसेवी संस्थाएं जटी हुई है। कस्वा वैर के राउमावि में बने डाॅ. राघव पार्क, पीडी, गल्र्स काॅलेज, लुपिन कार्यालय आदि पर कार्यक्रम होगंे। पीडी गल्र्स काॅलेज के निदेशक डाॅ. पवन धाकड ने बताया कि कस्वा के पीडी काॅलेज पर कोविड-19 संक्रमण के मानव जीवन सुरक्षा तथा कोविड गाइडलाईन की पालना करते हुए डाॅ. राघव जयन्ती मनाई जाऐगी, जिसमें काव्य पाठ, विचार गोष्ठी, निबन्ध लेखन, साहित्य प्रर्दशनी आदि कार्यक्रम होगें।