‘यादों के दरींचे’- (भाग-2)

‘यादों के दरींचे’ की दूसरी किश्त में हम प्रभाशंकर उपाध्याय के बालपन का एक पुराना पारिवारिक चित्र दे रहे हैं। इसमें लेखक (तीर द्वारा संकेतित) अपने माता-पिता, अनुज एवं दो छोटी बहनों के साथ बैठा है। यह सन् 1958 में गंगापुर के कल्याण जी के मेले में खींचा गया था। इस चित्र का सामयिक महत्व इसलिए है कि उन दिनों छायांकन बॉक्सनुमा कैमरे से किए जाते थे। उन दिनों मेलों में स्थानीय एवं बाहर से आए हुए फोटोग्राफर अपनी दुकानें लगाया करते थे। इसका एक लाभ यह होता था कि मेला देखने आए परिवार का एक चित्र भी लगे हाथ खिंच जाता था। फोटोग्राफर  सबको सामने बिठाकर फिर बॉक्स कैमरे के पीछे जाकर एक काले कपड़े में अपना सिर घुसा कर फोकस करता था तत्पश्चात् यस! प्लीज स्माइल, कहकर कैमरे के सामने लगा ढक्कन हटा देता था। कल्याण जी के मेले में अक्सर इस तरह की दुकानें लगा करती थीं। पाठकों से अनुरोध है कि यह स्तंभ उन्हें कैसा लग रहा है, इसकी प्रतिक्रिया तथा सुझावों से हमें अवगत कराते रहें। तो प्रस्तुत है,  इस लेख माला की दूसरी किश्त…वो डीजल की चक्की और वह जामुन का पेड़ चलिए फिर स्कूली संसार का रूख करते हैं क्योंकि अभी तो मेरा बचपन ही चल रहा है। पाठ्य सामग्री की बात हो रही थी। अधिकतर स्कूलों में लकड़ी की पट्टी पर सरकंडे की कलम तथा घुली हुई खडिय़ा से लेखन कार्य कराया जाता था। श्रुति लेखन और सुंदर लेख में कलम तथा स्याही का उपयोग होता था। गिनती और पहाड़ा याद न करने पर अच्छी खासी कुटाई हो जाती थी। फाउंटेन पेन का उपयोग तो बाद में शुरू हुआ था। कार्यालयों में भी काम काज के लिए एच.बी. की पक्की पैंसिल का उपयोग होता था। वह रबर से मिटती नहीं थी और भीग जाने पर नीला रंग ले लेती थी। हम, कलम की नोक चाकू या ब्लेड से बनाते थे। एक बार, निकर पहने हुए मैं, अपनी बांयी जांघ पर कलम रखकर छील रहा था कि उस पर से ब्लेड फिसल गया और उसने मेरी त्वचा को छील कर गहरा घाव बना दिया। उससे खून बह निकला। चीख सुनकर पिताजी आए तो पहले दो तमाचे रसीद किए, फिर आगे बात की। जख्म का वह निशान मेरी जांघ पर अभी भी कायम है और उस वाकये कीयाद दिलाता रहता है। 
बहरहाल, मुझ पर पड़े दूसरे तमाचे की बात जिसे गंगापुरी बोली में रहपट कहा जाता है। तब मेरा छोटा भाई भी स्कूल जाने लगा था तथा पिताजी ने हमें लकड़ी की छोटी-छोटी दो संदूकचियां बनवा दी थीं, साथ ही दो नन्हें ताले भी दे दिए ताकि पाठ्य सामग्री सुरक्षित रहे। कक्षा में मेरी पेटी को देखकर मेरे एक सहपाठी ने कहा कि इस पेटी में बंद चीजों को हवा तो लगेगी नहीं अत: वे सड़ जाएंगी। इसलिए इसमें एक छेद कर देंगे, जिससे हवा लगती रहेगी। उस बालक के पिता रेलवे में कारपेंटर थे, अत: वह दूसरे दिन अपने घर से लकड़ी में छेद करने का औजार ले आया और उसने मेरी संदूकची के ढक्कन में एक गोलाकार छेद बना दिया। इसके बाद उसने पेटिका में लटके ताला-चाबी अपने हाथ में लिए और ताला बंद कर दिया। उसने चाबी मुझे देने की बजाय उस छेद में डाल दी।
दरअसल, उस शरारती बच्चे का छेद बनाने का मकसद यही था और उसका अंजाम मुझे भुगतना पड़ा। जब मैं, अपना सा मुंह लिए हुए घर पहुंचा तो उस वाकये को
सुनकर, सर्वप्रथम पिताश्री ने पिटाश्री का रूप अख्तियार कर लिया। अपने अंदाज में दो रहपट रसीद किए और कहा, बेवकूफ। लिहाजा, अपनी जांघ और उस पेटी के जख्म को देखकर बरसों तक, उन थप्पड़ों की गूंज महसूस करता रहा।
जैसा कि मैं पहले भी बता चुका हूं कि हमारा क्वाटर ताजपुर से आने वाले नाले के किनारे था। उन दिनों वह नाला ढेर सारी पीली मिट्टी लिए आता था। उस समय रेलवे के अंडरब्रिज से बैलगाडिय़ां बड़ी आसानी से निकल जाया करती थीं। वे हमारे बड़े काम की सिद्ध होती थीं। जब भी बैलगाडिय़ां आती दिखतीं तो हम बच्चे लोग उसके पीछे दौड़ लगा जाते थे तथा चुपचाप किसी भी बोरी की सूतली ढीली कर दिया करते थे। उससे, जो मूंगफलियां गिरती जातीं, एक बालक उन्हें रेत में छुपाता जाता था। गाड़ी गुजरने के बाद हम उन मूंगफलियों को निकाल कर टूंगते रहते थे। उन्हें घर ले जाने का मतलब था, मार खाना।
हालांकि मार तो हमने नाले में भी खायी थी, लेकिन उस समय जब हम कभी पकड़े गए। तब यह जरूरी नहीं था कि हमारे माता-पिता ही हमारे कान उमेठते बल्कि जिस बच्चे के भी मां-बाप वहां से गुजरते, पकड़ में आने पर वही हमारी खासी खबर ले लेते थे। हमारे घर जाकर वे हमारी शिकायत भी कर दिया करते थे किन्तु क्या मजाल जो किसी माता पिता ने चूं भी किया हो बल्कि यही कहा कि अच्छा किया जो दो रहपट जमा दिए, आपका ही बच्चा है। यह साठ वर्ष पूर्व की संस्कृति थी कि कभी भी अपने बच्चे का परिचय देते वक्त माता -पिता यह नहीं कहते थे कि यह हमारा बच्चा है बल्कि कहते थे कि आपका ही बच्चा है। – प्रभाशंकर उपाध्याय, साहित्यकार