मानो या ना मानो (भाग- 3)

प्रियजनों! आज हम सब अपनें घरो में कैद है वो इसलिये कि हमनें कभी भी अब से पूर्व स्वयं पर प्रतिबन्ध नही लगाया था। आज परमशक्ति ने हमारे सभी मार्ग बन्द कर दिये। बचकर निकलने का कोई मार्ग ही नहीं है, प्रत्येक व्यक्ति के दरवाजे पर मौत मुहफाड़े खड़ी है।
विधी की विडम्बना है निकट सम्बन्धी भी एक-दूसरे को मौत का नुमाईन्दा समझ रहा है।
पहले जो इन्सान किसी के रोके नहीं रुकता था आज किसी के भेजे कहीं नहीं जा रहा है।
जहाँ भयंकर कोलाहल था वहां चारों ओर सन्नाटा पसर चुका है।
जहाँ पैर रखने को जगह नहीं होती थी वहाँ पैरों के निशान तक नहीं दिखाई दे रहे हैं।
व्यक्ति जो पहले स्वयं को श्रेष्ठ घोषित करवाने की होड़ में था आज वह दूसरे को सर्वश्रेष्ठ कहते नहीं थक रहा है।
विधी की विडम्बना देखो आज मौत के भय से, स्वयं को श्रेष्ठ समझने वाला व्यक्ति अब ज्येष्ठ भी नहीं होना चाहता।
मित्रों, मानो या ना मानो आज हमसे परमात्मा रूठ अवश्य गया है, इसी के कारण प्रकृति अपना रोद्र रुप दिखला रही है।
इसलिये मेरे प्यारे जीवित प्राणीयों! आओ हम सब मिलकर उस महाशक्ति का शुक्रिया अदा करें कि आज उसकी कृपा से हमें सांस लेने में परेशानी नहीं है।
मित्रों, मंैने यह देखा कि जब भी मैंने आध्यात्मिकता की बात करने का प्रयास किया तो उसका गलत अर्थ निकाला गया। मूल विचारधारा का रास्ता मोड़ दिया गया।
प्रियजनों, आध्यात्मिकता के माईने एकदम अलग हैं, उसे लोग केवल पूजन, पठन, भजन और कीर्तन तक ही समझते हैं ऐसा नहीं है।
आध्यात्मिकता व्यक्ति को मानवीय दृष्टिकोण के उन पहलुओं की ओर उन्मुख करती है जो कदाचित् मनुष्य जीवन के लिये आवश्यक ही नहीं अत्यावश्यक है।
आध्यात्मिकता मनुष्य को मनुष्यत्व सिखाती है।
सकारात्मक भावों को अन्तर्मन में आत्मसात करने के लिये तथा चिन्तन, मनन और विचारों की शुद्धि के लिये आध्यात्मिक दृष्टिकोण सर्वोपरी है।
आप ही बताये क्या परमसत्ता का सम्मान या स्मरण करना अनुचित है?
कदापि नहीं
तो कोई व्यक्ति किसी भी वस्तु या पदार्थ को आधार बनाकर परम शक्ति का स्मरण करता है तो वह क्या गलत करता है?
मैं पाषाण पूजा का इसलिए समर्थन करता हूँ कि वह प्रकृति और पृथ्वी की पूजा है।
मैं गंगा मैया की पूजा का इसलिए समर्थन करता हूँ कि वह स्नेहत्व, सरलता, सहजता, स्निग्धता, जीवन्तता और वास्तविकत की साक्षात् मूर्ति है ।
मैं अग्नि की पूजा का इसलिये करता हूँ क्योंकि वह शोर्य और तेज का प्रतीक है और साथ ही चराचर जगत के अवशिष्ट की विनाशक है।
मैं वायु देवता की पूजा इसलिए करता हूँ क्यों कि वह प्राणशक्ति का मूल है।
मुझे श्वांस लेने के लिये रिक्त और शान्त स्थान चाहिए इसलिए मैंं आकाश का उपाशक हूँ।
इसलिए प्रियजनों, समय का आदर करो, समय अर्थात् काल महाकाल, महाअन्त, महाविनाश और महामृत्यु का प्रतीक है ।
आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करो।
निसंदेह वह आपके भौतिक शरीर में चैतन्य स्वरूप में विराजित है।
मित्रों, मैं ये सब बाते इसलिये कह रहा हूँ क्यों कि ये ही यथार्थ है और हाँ इन सब बातों को हम सब जानते भी हंै।
आज प्रत्येक व्यक्ति यह सोचने के लिये विवश है कि-
यह क्या है?
यह हो क्या रहा है?
यह क्यूँ हो रहा है?
साधारण सी बात है लेकिन बहुत गम्भीर है कि यह क्या है? यह प्रकृति का प्रकोप है आपको यह स्वीकार करना चाहिये कि हमारे कृत्यों और कुकृत्यों से प्रकृति रुष्ट हो गई है।
मित्रों! मानो या ना मानो उस प्रकृति और माँ पृथा ने अपने हथियारों से हम पर प्राणघातक प्रहार करना शुरू आखिर कर ही दिया है। इसमें उसका कहाँ दोष है? हमने प्रकृति को विकृत किया है।
हमनें धरणी की आत्मा को दुखाया है।
हमने पृथ्वी माँ पर सूल चलाये हैं। तीक्ष्ण वाणों से माँ की सम्पूर्ण देह को क्षीण-क्षीण कर दिया।
आज वह विवश होकर करुण क्रन्दन करती हुई अनावृष्टि, अतिवृष्टि और ओलावृष्टि करके अपने आँसुओं से संसार को भिगो रही है।
यह क्यों हो रहा है? इसलिए कि अति सर्वत्र वर्जयते, अनेक बार, अनेक माध्यमों तथा अनेकानेक उपायों के बावजूद भी प्रकृति से निरन्तर छेड़छाड़ होती रही। पर्यावरण प्रदूषण के लिये सम्पूर्ण विश्व में शपथ दिलवाई गई, वचन पत्र भरवाए गए। पर हम अपनी आदतों से बाज नहीं आए। अब परिणाम भुगतने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं बचा है।
धरती माँ ने हमारी अनगिनत गल्तियों को क्षमा किया है पर अब क्षमा के सभी द्वार बन्द हो चुके हैं। अब अन्त ही श्वासत सत्य है। इसें हर व्यक्ति को स्वीकार करना ही पड़ेगा।
अब रही बात यह कि यह हो क्या रहा है? तो मित्रों यह विनाश हो रहा है।
सभ्यताओं का विनाश,
दूषित संस्कृति का विनाश,
प्रदूषित वातावरण का सर्वनाश,
मनुष्य की हठधर्मिता का नाश,
इसलिये मित्रों, आओ हम सब मिलकर महाशक्ति स्वरूपा माँ धरणी, प्रकृति और परमपिता परमात्मा की आराधना करें, उनका स्तवन और नमन करें।
प्रियजनों आओ हम सब मिलकर प्रार्थना करें कि हे धरती माता आप अपने इन लज्जित अपराधी पुत्रों को क्षमा करें।
हे त्रैगुण्य स्वरूप परमपिता अपनी इस भयावह लीला को समेटकर प्राणी मात्र को अभयदान करो। हम विश्व के सभी सजीव प्राणी आपकी शरण में है।
असतो माँ सद्गमय,
तमसो माँ ज्योतिर्गमय,
मृत्यो माँ अमृतम् गमय,
जयतु धरणी
ऊँ परमात्मने नम:
प्रो. रामकेश आदिवासी
सह आचार्य संस्कृत, राजकीय महाविद्यालय, गंगापुर सिटी