रामचरितमानस की वर्तमान प्रासंगिकता

लेखक: अभिषेक उपाध्याय
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने साहित्य की परिभाषा से संबंधित अपने वक्तव्य में कहा है कि प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है, जैसे-जैसे जनता की चित्तवृत्ति बदलती है, समाज और साहित्य दोनों ही बदलते हैं। यद्यपि महाकवि गोस्वामी तुलसीदासजी ने अपना काव्य सृजन तत्कालीन समाज को दृष्टिगत रखते हुए किया, उसी समाज के अनुरूप रामकथा में परिवर्तन किया।
हो सकता है तुलसीकालीन परिस्थितियाँ वर्तमान मे विद्यमान नहीं हो लेकिन उनकी कालजयी रचना रामचरितमानस वर्तमान में भी प्रासंगिक है।
आज हम दैनिक जीवन में देखते हैं हर बालक, हर युवा आदर्श बनना चाहता है, वह चाहता है कि वह ऐसा कार्य करे जिससे उसके व्यक्तित्व को एक नई पहचान मिले, वह स्वयं के लिए अद्वितीय आयाम निर्मित करे। इसके लिए वह सोशल मीडिया की सहायता लेता है, मोटिवेशनल सेमीनार में जाता है, वह वहाँ जिन चीजों को सुनता है, देखता है, उसे काफी नया लगता है। वह सोचता है उसने कुछ नया सीखा है, यह तो आज तक उसे पता ही नहीं था। उसे क्यों पता होगा? नवीन पीढ़ी को रामचरितमानस से क्या सरोकार? वह यह समझ नहीं पाता कि तुलसी ने इतने वर्ष पूर्व ही वर्तमान काल की विविध समय काल-परिस्थितियों का चित्रण कर दिया था, जब वे अपने पूर्ण विराट रूप में थी भी नहीं।
तुलसी की रामचरितमानस हमें जीवन के हर सोपान पर नवीन सीख देने वाला, एक अद्वितीय चिंतन क्षमता का विकास करने वाला महाकाव्य है। एक आदर्श व्यक्तित्व कैसा होता है, एक आदर्श कार्य व्यवहार कैसा होना चाहिए? हमें कब कैसे और कहाँ किस प्रकार का कार्य करना है अथवा नहीं करना है, यह विवेक चिरकाल से तुलसी की रामचरितमानस हमें कराती आई है।
रामचरितमानस का प्रत्येक पात्र हमें एक विशिष्ट सीख देता है। चाहे वह सीख श्रीराम के माध्यम से एक आदर्श मर्यादावादी राजा व एक आदर्श पुत्र के रूप में हो या लक्ष्मण के माध्यम से एक आदर्श भाई के रूप में हो।
अंतर बस इतना सा है कि हम खुद ऐसी अमूल्य धरोहर को आधुनिकता में बाधक मानकर इसके महत्व को भूल गये हैं।
मानस पात्रों की वर्तमान प्रासंगिकता अनेक संदर्भों में है-

  • राम के चरित्र की वर्तमान प्रासंगिकता
    श्रीराम तुलसी के आराध्य देव है और मानस के प्रमुख आदर्श पात्र है, जिनका जीवन विभिन्न प्रकार विद्रूपताओं से युक्त रहा है। चाहे किसी भी प्रकार की विपरीत परिस्थिति आई वे अडिग रहे और कर्तव्य सर्वोपरि रखा। श्रीराम की कर्तव्यनिष्ठा और दृढसंकल्प ने ही राजकुमार राम को मर्यादा पुरुषोश्रम राम बना दिया।
    श्रीराम का चरित्र हमें कर्तव्यनिष्ठ बनने की प्रेरणा देता है। आज हम जीवन की थोडी सी समस्याओं को ही दुखों का आगार मान बैठते हैं और स्वयं को दुर्भाग्यशाली जैसी संज्ञाओं से विभूषित कर देते हैं।
    वर्तमान समय में हमें यह समझना चाहिए कि जीवन में बडा बनने के लिए केवल बडे कुल में, मान प्रतिष्ठित परिवार में ही जन्म लेना काफी नहीं होता। लोग आपको बडा तब समझेंगे जब आप कैसी भी विपरीत परिस्थिति हो, कर्तव्यनिष्ठ बने रहें। पिता की आज्ञा का पालन करना, 14 वर्ष वनवास में रहना वर्तमान की हमारी उन सभी परेशानियों से तो बहुत बडी है जिन्हें देखकर हम स्वयं को और भगवान को कोसने लग जाते हैं।
    श्रीराम यदि वनवास नहीं भी जाते, राजसिंहासन यदि नहीं त्यागते तो क्या फर्क पडता? मेरी नजर में तो ज्यादा कुछ नहीं, क्योंकि स्वयं वे राजा थे, ऐश्वर्य के साथ जीवन जी सकते हैं, राज भोग कर सकते थे। लेकिन पता है वे क्यों वन में गये? क्यो सिंहासन छोडा? क्यों पिता की आज्ञा का पालन किया?
    कई संकुचित चित्तवृत्ति वाले लोग तो यह कहकर अपना पल्ला झाड लेंगे कि राम ईश्वर थे, वे तो कठिन से कठिन दुख सह सकते थे लेकिन वास्तविकता तो यह थी कि राम ने कर्तव्यपालन इसलिए किया कि उन्हें सिर्फ यह सोचकर अपना कर्म करना था कि भविष्य में आने वाली पीढियाँ उनके चरित्र से क्या सीख लेंगी, भविष्य में उनके व्यक्तित्व पर प्रश्न तो नहीं लग जायेगा?
    “राम वन गए तो बन गये” दुनिया पूजने लगी उन्हें, सिर्फ इसीलिए नहीं कि वे ईश्वर के अवतार थे, बल्कि इसीलिए कि आगामी पीढियाँ उनके सुकृत्यों से प्रेरणा ले रही थी।
    राम का चरित्र हमें धैर्यवान बनने की भी प्रेरणा देता है। आज वर्तमान में जैसे-जैसे आधुनिकता का पक्ष प्रबल होता जा रहा है, उसकी संवेदनाएँ क्षत-विक्षत हो गई है, वह संवेदनाओं से रहित केवल हाड माँस का एक पुतला मात्र रह गया है। उसकी सहनशीलता इस कदर खत्म हो गई है कि धैर्य तो अपना स्थान खो ही चुका है। जबकि आप सोचो राम ने कितना धैर्ययुक्त जीवन जिया होगा। एक उदाहरण प्रस्तुत करता हूँ जरा साधारणीकरण के सफर में साझा हो सकोगे तो मैं आपने आपको कृतार्थ महसूस करूंगा-
    पूरी अयोध्या नगरी में उत्साह का वातावरण था। पूरी नगरी नई दुल्हन की तरह सुसज्जित थी। उत्साहमय वातावरण होना भी चाहिए राजकुमार राम का कल राजतिलक होगा। स्वयं राम भी प्रसन्नचित्त थे लेकिन वह प्रसन्नता स्वाभाविक मानवीय प्रसन्नता कहीं जा सकती है ना कि राजा बनने का हर्ष। पूरा परिवार खुश था। वह धैर्य की परिस्थिति क्या रही होगी जब कुछ ही समय बाद उन्हें पिता के कक्ष में जाकर यह सूचना दी गई कि आपका राजतिलक नहीं होगा, आप राजा नहीं बनोगे अपितु आपके स्थान पर यह अधिकार भरत को दे दिया गया है, आप 14 वर्ष वनवास में रहोगे। जल्दी से तैयारी करो जाने की…
    आप कल्पना कीजिये कि हम या आप होते इस जगह तो क्या करते? हमारी प्रतिक्रिया क्या रहती? जब भी लेख पढोगे तो जवाब आपके ही होंगे। हम में से कोई भी क्या वह करने में सक्षम होता जो श्रीराम ने किया? क्या हम में से कोई भी राम के समान ऐसा दृढ धैर्यवान हो पाता?
    आप ध्यान रखिएगा राम आराध्य तब तक नहीं बने जब तक वो अयोध्या में रहें, राम को तब आदर्श माना गया जब वो पिता की आज्ञा मानकर अपने भविष्य से अनभिज्ञ होकर वन को निकल पडे थे। राम जब तक अयोध्या में रहे राजकुमार राम ही रहे, वे 14 वर्ष वनवास में रहे तो मर्यादा पुरुषोत्तम राम बन गये।
    आज कोई भी व्यक्ति अपने परिवार से अलग रहकर 1 साल नौकरी नहीं कर सकता, खासकर ऐसे क्षेत्र में स्थानांतरण हो जाये जहाँ सुविधाएं अल्प मात्रा में हो। स्थानांतरण की सूचना लगने मात्र से व्यक्ति के विचारों में विरान वातावरण सा छा जाता है, उसे ऐसा लगने लगता है कि जीवन ने स्थायित्व ग्रहण कर लिया हो। अत: ऐसे समय में हमें श्रीराम के चरित्र से प्रेरणा लेनी चाहिए और अपने कार्यो का कर्तव्यनिष्ठा से पालन करना चाहिए, तब तुलसी का श्रीराम वाला पात्र वास्तविक मायनों में एक आदर्श व्यक्तित्व बनाने में सफल सिद्ध होगा।
    किसी ने बहुत बडी बात कही है कि “नजर बदलते ही नजरिया बदल जाता है।” श्रीराम का चरित्र हमें सदैव सकारात्मक दृष्टिकोण रखने की सीख देता है। सकारात्मक दृष्टिकोण हमें सकारात्मक ऊर्जा तो प्रदान करता ही है, साथ ही साथ सफलता प्राप्ति में भी अहम भूमिका निभाता है। जब हमारी सोच सकारात्मक होगी तो विपरीत परिस्थितियाँ भी हमें एक सकारात्मक संबल प्रदान करेगी।
    आपके सामने राम के उच्च सकारात्मक दृष्टि का उदाहरण प्रस्तुत करता हूँ- राम का राज्याभिषेक होने वाला था। लेकिन उन्हें पिता के कक्ष में जाकर यह सूचना प्राप्त हुई कि उन्हें 14 वर्ष वनवास को जाना होगा, सिंहासन भरत को प्राप्त होगा। राम पिता की आज्ञा मानकर वन जाने की तैयारी करने लगते है। हम यदि उस परिस्थिति में होते तो क्या स्वयं को सकारात्मक रख पाते। राम ने पिता के निर्णय व विपरीत परिस्थितियों का अपने हृदय के साथ समन्वय स्थापित करके उच्च सकारात्मक दृष्टिकोण का एक अद्भूत उदाहरण प्रस्तुत किया।
    कुछ देर बाद माता कौशल्या को पता लगा। उन्हें लगा कि बेटे को बनवास मिला है, वह दुखी होगा। उन्होनें राम को पास बुलाया और पूछा कि क्या हुआ, आपको बनवास मिला है। राम ने तुरंत अपना उच्च सकारात्मक दृष्टिकोण रखते हुए जबाब दिया-
    पिता दीन्ह मोहि कानन राजू।
    जहँ सब भाँति मोर बड काजू।।
    हे माता! मुझे वनवास नहीं मिला है। पिताजी ने मुझे सम्पूर्ण जंगल का राज्य दिया है, जहाँ मेरे सभी बडे कार्य सफलतापूर्वक होंगे। राम के जीवन में सर्वत्र सकारात्मकता विराजमान है। राम का यह उच्च सकारात्मक दृष्टिकोण राम को हमारे समक्ष एक अद्धितीय आदर्श चरित्र के रूप में प्रस्तुत करता है। हमें उनके व्यक्तित्व से प्राप्त सभी गुणों को स्वयं में आत्मसात करना चाहिए।
  • हनुमान के चरित्र की वर्तमान प्रासंगिकता
    तुलसी की रामकथा और उसके पात्र तत्कालीन विकट विपरीत परिस्थितियों में हतदर्प पराजित जनता में एक नवीन आशा का संचार करने वाले थे। हनुमान जी के चरित्र ने तुलसीकालीन जनसमूदाय में भी एक नये ही भावबोध व हर्ष का संचार किया था। हनुमान जी सदैव ही सहज बने रहते है और रामजी से कहीं ज्यादा धैर्यवान है।
    एक विशेष परिस्थिति में जाकर एक समय ऐसा आया जब राम का धैर्य भी टूट गया जैसे- जब सीता का अपहरण हो गया, लक्ष्मण को शक्ति लगी। ऐसी परिस्थितियों में हनुमान जी ने ही सहजता से सभी समस्याओं का समाधान किया और एक श्रेष्ठ योद्धा का अद्भूत उदाहरण प्रस्तुत किया।
    हनुमान जी का चरित्र हमें सदैव सहज बने रहने और निरंहकारी होने की प्रेरणा देता है।
    आज हम कोई छोटी सी सफलता प्राप्त कर लेते है तो स्वयं को सहज और अहंकार रहित नहीं रख पाते। कोई जरा भी कुछ कह दे या किसी से सुन ले कि किसी ने हमारे लिए अनर्गल कहा है तो हम स्वयं को सहज नहीं रख पाते और हमारा अहम झलक जाता है।
    हनुमान जी ने कोई छोटे कार्य नहीं किये थे, बल्कि जो असंभव कार्य थे, उनको किया था। एक रात में दक्षिण में स्थित लंका से उश्रर में स्थित हिमालय पर्वत पर संजीवनी बूटी लेने जाना। इतने दुष्कर कार्य हनुमान जी ने किये। फिर भी कोई अहम भाव नहीं, प्रभुभक्ति में लीन है, रामानुग्रह पर आश्रित है।
    हनुमान जी का चरित्र हमें एक कुशल प्रबंधक और कुशल नेतृत्वकर्ता के गुणों को स्वयं में विकसित करने की सीख देता है। यह समझना चाहिए कि आज कल हम कुशल प्रबंधक बनना तो चाहते है, नेतृत्व करना तो चाहते है लेकिन हमारी स्थिति ये है कि हम बिना बताये कुछ नहीं कर सकते।
    हनुमान जी जब सीताजी का पता लगाने गये थे तो राम जी ने सिर्फ उन्हें आज्ञा दी थी। उन्हें यह सब बताकर नहीं भेजा था समुद्र कैसे पार करना है? लंका में कैसे प्रवेश करना है? कैसे लंका का भेद जानना है? यहाँ तक कि लंका में आग भी लगानी है। यह होती है कुशल प्रबंधन क्षमता-कुशल नेतृत्व क्षमता, जो हमें बिना किसी सांसारिक व्यक्ति को आदर्श मानने से पूर्व हनुमान जी से सीखनी चाहिए। क्या करना आवश्यक है और क्या नहीं, यह सब बता दिया जाये तो अनुगामी और प्रबंधक में क्या अंतर रह जायेगा।
    तुलसी जनता की परिस्थितियों से पूर्ण रूप से परिचित थे। उन्होंने हनुमान जी के माध्यम से दुखी व पीडित भारतीय जनता में हर्ष व उत्साह उत्पन्न किया। उन्होनें हनुमान जी के माध्यम से यह उदाहरण प्रस्तुत किया कि यदि किसी विशिष्ट कार्य के लिए मन में श्रद्धा, हृदय मेें उत्साह व अपने आराध्य के प्रति सच्ची निष्ठा हो तो वह कार्य विघ्नरहित यथाशीघ्र संपन्न होता है।
    जैसे हनुमान जी ने लंका में प्रवेश करने से पूर्व पूर्णनिष्ठा और उत्साह के साथ आराध्य राम पर अटूट विश्वास रखके स्तुति की-
    प्रबिसि नगर कीजै सब काजा।
    हृदय राखि कौसलपुर राजा।।
    गरल सुधा रिपु करहीं मिताई,
    गोपद सिंधु अनल सिथलाई।।
    हनुमान जी का चरित्र सदैव प्रसन्नचित्त बने रहने की प्रेरणा देता है। यदि किसी कार्य के लिए हम हर्षित मन से संलग्न है तो वह कार्य पूर्ण सफल होगा।
    किसी भी रचनाकार की कृति केवल अपनी युगीन परिस्थितियों में ही समीचीन होती है। लेकिन महाकवि तुलसीदासजी का सम्पूर्ण काव्य वर्तमान में भी उतना ही प्रासंगिक है जितना कि उसके खुद के समय था। उनका सम्पूर्ण काव्य वर्तमान बालक, युवा और बुजुर्ग सभी को एक विशेष प्रेरणा देता रहा है और हमेंशा देता रहेगा।
    मानस की रचना के पीछे भी लोगो की संकुचित मनोवृति तर्क करने से नहीं झिझकती कि तुलसीदास पत्नी के फटकारने से ही सच्चे अर्थों में तुलसीदास बने थे और राम की भक्ति की ओर उन्मुख हुए थे। मैं अपने लेख के अंतिम वक्तव्य में उन्हें यह बताना चाहता हूँ कि यदि पत्नी के फटकारने से तुलसीदास यदि बना करते तो आज हर घर में तुलसीदास होते। लेकिन क्या हर घर में तुलसीदास है? तुलसी बनने के लिए केवल त्याग और समर्पण ही आवश्यक नहीं है बल्कि समर्पण के साथ जो दृढ निश्चय और धैर्यशीलता जब सम्मिलित होती है तब जाकर सच्चे अर्थो में सच्चे तुलसी बनते। अत: कहा जा सकता है कि स्वयं तुलसी और उनकी रामचरितमानस वर्तमान में प्रासंगिकता लिये हुए है व नवीन पीढी का सभी क्षेत्रों में मार्गप्रशस्त कर रही है, आवश्यकता है तो नवीन पीढी के एक छोटे से प्रयास की।