‘यादों के दरीचे’ – दसवीं किश्त

गंगापुर सिटी का पहला अखिल भारतीय स्तर का कवि सम्मेलन संभवत: सन् 1969 में हायर सैकेंडरी स्कूल में आयोजित हुआ था। उस समय के प्रधानाचार्य राधाकृष्ण शर्मा एवं वरिष्ठ अध्यापक हरिप्रसाद शास्त्री के संयुक्त प्रयासों से वह आयोजन अध्यापकों और विद्यार्थियों के आर्थिक सहयोग से हुआ था। उस बारे में लब्ध प्रतिष्ठ कवि गोपीनाथ चर्चित ने हमें बताया कि उस समय के जिन विख्यात् कवियों ने उसमें शिरकत की उनमें निर्भय हाथरसी, शिशुपाल सिंह निर्धन, बंकट बिहारी पागल, ब्रजेन्द्र अवस्थी, आत्मप्रकाश शुक्ल, दामोदर विद्रोही, बंसीलाल बेकारी, हजारी लाल ग्रामीण तथा स्थानीय कवियों में गोर्वद्धनलाल गर्ग और बैचेन धौलपुरी आदि अनेक कवियों ने काव्य पाठ किया था। चर्चितजी बताते हैं कि निर्भय हाथरसी उस दिनों सफेद वस्त्र धारण करते थे, बाद में वे गेरूआ वस्त्र पहनने लगे थे। निर्भय हाथरसी बहुत ही प्रतिभाशाली और आशु कवि थे। मंच पर वे बिना लिखे ही कविता पढ़ते थे। लेकिन उन्होंने मंचों पर अपनी बेलाग बेबाक तथा कटाक्षपूर्ण टिप्पणियों से अनेक विरोधी उत्पन्न कर लिए थे अत: वे काका हाथरसी के प्रतिस्पर्धी होते हुए भी काका की भांति प्रतिष्ठित नहीं हो सके थे और वे बाद में बाबा निर्भयानंद बन गए। बहरहाल, उस कवि सम्मेलन में दिसम्बर की सर्द रात्रि के बावजूद श्रोताओं की भारी भीड़ ने पूरी रात काव्य रस का आनंद लिया था। निर्भय हाथरसी की हास्य कविता ‘मारे गए मलखान दिल्ली के दंगल में… ‘ सिंडीकेट मैदान दिल्ली के दंगल में। तथा आत्मप्रकाश शुक्ल का गीत, ‘जनम के अंगना अलग-अलग हैं, मरण का मरघट एक है…। ‘ निर्धन के गीत ‘तेरे पीछे लगा हुआए कब से मरघट का अंगारा…। ‘ ने बहुत रंग जमाया था।
बाद में शिवाजी क्लब द्वारा दशहरा मैदान में तथा कल्याणजी के मेले में नगर पालिका द्वारा राष्ट्रीय कवि सम्मेलन होना प्रारंभ हुए थे लेकिन हायर सैकेंडरी के उस पहले कवि सम्मलेन की याद भुलाए नहीं भूलती। यहां हम उन तीन कवियों के चित्र लगा रहे हैं जिन्होंने उस कवि सम्मेलन में काव्य पाठ किया था। निर्भय हाथरसी का चित्र हमें चर्चित जी के सौजन्य से प्राप्त हुआ है। दूसरा चित्र गोर्वद्धनलाल गर्ग और तीसरा बैचेन धौलपुरी का है। लिहाजा, पेश है यादों के दरीचे की दसवीं किश्त…

– प्रभाशंकर उपाध्याय, साहित्यकार

अब, लगे हाथों जीव विज्ञान के प्रेक्टीकल का हाल भी बयां कर दूं। उसमें भी एक संकट खड़ा हो गया। मुझे मेढक का विच्छेदन (डिसेक्शन) कर उसका नर्वस सिस्टम निकालना था। सब कुछ अच्छे ढंग से निकल आया था कि एक नर्व पर वसा की एक छोटी सी परत चिपकी हुई थी। मैंने सोचा कि अभी तो पांच-सात मिनट शेष हैं अत: इस लेयर को भी साफ कर देते हैं। यद्यपि उसे साफ न भी करता तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि नर्व साफ नजऱ आ रही थी लेकिन उस वसा को हटाने के प्रयास में वह नर्व टूट गयी। मैं अपनी किस्मत को कोसने लगा कि मैं बेवजह, क्यों कुचड़का करने लगा था। मन हताश हो गया। अभी एक दो मिनट बाकी थे अत: चिमटी की मदद से किसी तरह टूटे हुए सिरों को आपस में दबा कर चिपका दिया। समय समाप्त हो गया। अब, सब कुछ मेरे मुक्कदर के आधीन था। यदि परीक्षक डिसेक्शन ट्रे में भरा पानी जरा सा भी हिला दे तो उस नर्व के दोनों सिरे अलग-अलग हो कर तैरने लगते। नर्व डेमोंस्ट्रेशन के डिसेक्शन को परीक्षक प्राय: चिमटी की मदद सें उठाकर देखा करते थे जबकि रक्त परिसंचरण (ब्लड सरकुलेशन) के डिसेक्शन में उसकी जरूरत नहीं होती थी क्योंकि उसमें अगर कोई धमनी या शिरा टूट जाती तो ट्रे का पानी लाल हो जाता था। खैर, नर्वस सिस्टम की चीर फाड़ में मेरे नर्वस हो जाने के बावजूद उस प्रयोग में मुझे 66 प्रतिशत अंक मिले थे। शायद मेरा वह जुगाड़ सफल रहा था। इस मेरी तरह सारी परीक्षाएं सम्पन्न हुईं। परीक्षाकाल निबटने के बाद मैं पुन: किताबों की दुनिया में खो गया। हायर सैकेंडरी स्कूल में हमारे अध्ययन के दौरान वहां एक बड़ा कवि सम्मेलन भी हुआ था। सर्दियों की उन सर्द रातों में बड़ी संख्या में श्रोतागण भारी उत्साह से सारी रात जमे रहे थे, उनमें एक मैं भी था। हालांकि जैसा बताया जाता है कि उस काव्य आयोजन में राष्ट्रीय स्तर के अनेक जाने माने कवि नाम थे लेकिन मुझे निर्भय हाथरसी और कवि निर्धन का नाम ही ध्यान है तथा उस काव्य मंच से पढी गयीं पंक्तियां, ‘मारे गए मलखान दिल्ली के दंगल में…’ तथा ‘जनम के अंगना अलग हैं’, मरण का मरधट एक है…।’ का भी स्मरण है।
दिन बीतते रहे और फिर परीक्षा परिणाम वाला दिन आया गया। चूंकि माध्यमिक शिक्षा बोर्ड का कार्यालय अजमेर में है, अत: उस शहर से प्रकाशित होने वाले नवज्योति समाचार पत्र में वह रिजल्ट सबसे पहले छपता था। 1970 मेंइंटरनेट तो क्या, दूरदर्शन तक नहीं था। ट्रंक कॉल और तार ही सबसे शीघ्रगामी समाचार संवाहक यंत्र थे। खैर, रात ही रात में वह अखबार जयपुर आ जाता और दूसरी सुबह किसी न किसी व्यक्ति के द्वारा उस अखबार के गंगापुर लाए जाने की बात फैल जाती थी। हालांकि, अनेक बार वह बात कोरी अफवाह ही सिद्ध होती थी। बहरहाल, उस सुबह हमारे घर आकर किसी ने कहा कि बजरिया में कोई रिजल्ट वाला अखबार ले आया है। हमारे यहां प्रारंभ से ही नवभारतटाइम्स, चंदामामा, नंदन और पराग आते थे लेकिन रिजल्ट तो आता था नवज्योति में, अत: पिताजी ने कहा, ‘जा रिजल्ट देखिया।’ मैंने जवाब दिया कि दस-ग्यारह बजे तो नगर पालिका की लाइब्रेरी में ही नवज्योति आ जाएगा, अत: वहीं जाकर देख लूंगा। मैं हथेली पर काला दंत मंजन लेकर उसे अपने दांतों पर रगडऩे लगा। यह देख, माताश्री को क्रोध आया, ‘एं रे प्रभा! रिजल्ट देखवा की तोकू कतई परवाह नईं…जावै च्यों नईं।’ मैंने निरपेक्ष भाव से कहा, ‘रिजल्ट तो जिस्यो है, जीजी! विस्यो ही छप चुक्यो, दो घंटा बाद देखूंगो तो बदल थोड़ी जावैगो, रहेगो तो वाई को वाई।’
लगभग एक घंटे बाद बलबीर हमारे घर में प्रविष्ट हुआ। वह हांफता हुआ बोला, ‘प्रभाशंकर! मैं तो फस्र्ट डिवीजन पास हो गयो और तेरो कांई हुओ, बता?’ मैंने पूछा, ‘तूने मेरो रिजल्ट नहीं देख्यौ जबकि तोकू तो मेरो रोल नंबर भी याद है।’ वह बोला, ‘यार, या टाइम तो मौकूं कछु भी याद नहीं।’ दरअसल, मारे खुशी के वह सब कुछ भूल चुका था। बलबीर फिर बोला, ‘प्रभा सुन, मेरे घर पर रिजल्ट को अखबार है, मैं अबी लेकर आऊं।
– प्रभाशंकर उपाध्याय, साहित्यकार