‘यादों के दरीचे’- 12वीं कड़ी

हायर सैकेंडरी स्कूल में अखिल भारतीय स्तर के उस कवि सम्मलेन के अलावा जो स्मरणीय आयोजन हुए थे उनमें वर्ष 1975-76 का राजस्थान केसरी दंगल भी एक था। उस दंगल में हिन्द केसरी महाबली सतपाल, मास्टर चंदगीराम, सतपाल के गुरू हनुमान और रंधावा मुख्य आकर्षण के बिन्दु थे। उन दिनों शिष्यों में गुरू हनुमान की लाठी का बड़ा डर हुआ करता था। कहा जाता था कि उस लाठी के भय से अखाड़े के शिष्य तीन बजे ही उठ जाते थे और उसी अनुशासन का परिणाम था कि उस अखाड़े से सतपाल, करतार सिंह, प्रेमनाथ (ओलंपिक प्रतियोगी) जैसे पहलवान निकले। मास्टर चंदगीराम चूंकि एक स्कूल में कुछ दिनों तक शिक्षक रहे थे अत: उन्हें मास्टर कहा जाने लगा। उन्होंने भी 1972 के ओलंपिक में भाग लिया था। चंदगीराम के बारे में कहा जाता था कि अगर वे एक बार अपने प्रतिद्वंद्वी का हाथ पकड़ लेते थे तो फिर उसका हाथ छूटना मुश्किल होता था। गंगापुर सिटी के उस खेल मैदान में उन्होंने अपने उस रहस्य को उजागर करते हुए पत्रकारों से कहा था कि वे वर्षों तक पानी में भारी भरकम सूती चादरों को भिगोकर निचोड़ते रहे, इससे उनकी कलाई में इतनी ताकत आ गयी कि अगर एक बार उन्होंने किसी का हाथ पकड़ लिया तो वह लाख जोर लगा कर भी छुड़ा नहीं पाता है। अब हिन्द केसरी सतपाल के बारे में भी हायर सैकेंडरी स्कूल के मैदान में घटित एक रोचक घटना बताते चलें। हुआ यूं कि वहां कुश्ती प्रतियोगिताएं चल रही थीं। गुरू हनुमान और सतपाल दर्शक दीर्घा में बैठे थे कि अचानक ही बूंदा-बांदी प्रारंभ हो गयी। महाबली उन हल्की हल्की फुहारों से घबरा गए और पास पड़ी टिन की एक कुर्सी को उल्टा करके सर पर ढंक लिया। ठीक उसी वक्तए अमर स्टूडियो के छायाकार ने उस दुर्लभ दृश्य को अपने कैमरे में कैद कर लिया था। फिल्म जगत से जुड़े रंधावा की ख्याति अति प्रबल थी। उस जमाने में दारासिंह और रंधावा की फ्री स्टाइल कुश्ती के बड़े चर्चे हुआ करते थे। उस आयोजन के महत्व के बारे में एक विशेष बात और बता दें। राजस्थान पत्रिका ने कवरेज हेतु अपने खेल पत्रकार एण्गनी को जयपुर से भेजा था। गनी साहब की रिपोर्ट प्रतिदिन पत्रिका के खेल पृष्ठ पर प्रकाशित होती थी। बहरहाल, इन चारों मल्ल हस्तियों के उस जमाने के चित्रों को हम इस क्रम में प्रकाशित कर रहे हैं- गुरु हनुमान, महाबली सतपाल, मास्टर चंदगीराम और रंधावा। इसके साथ ही पढें यादों के दरीचे की 12वीं कड़ी हमारे स्तंभ लेखक की कलम से:-

प्रभाशंकर उपाध्याय, साहित्यकार

चुनांचे, अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना छोड़कर, उस समय अपने साथ पढऩे वाले कुछ अन्य प्रतिभाशाली छात्रों का जिक्र भी कर दूं। इनमें अनेक तो वर्तमान में जानी मानी शख्सियतें हैं- विशम्भर दयाल सिंहल (समाजसेवी), इंदरलाल गुप्ता, जुगलकिशोर गर्ग, देवेन्द्र कुमार जैन, कृष्णकुमार उपाध्याय (चारों एडवोकेट), सुरेन्द्र कुमार जैन (राजस्थान के सहकारी बैंक में उच्च प्रबंधक बने), विजयकुमार धीर (प्राचार्य पद से सेवानिवृत), तुलसी प्रसाद चतुर्वेदी (राज. तहसीलदार सेवाओं में चुने गए और बाद में आर.ए.एस. हुए), प्रहलाद चंद मेठी (जाने माने व्यापारी और समाजसेवी), स्व. डा. प्रकाश अग्रवाल (पूर्व अध्यक्ष) न.पा, डा. मदनमोहन मरजिया (वरिण् विशेषज्ञ) और डा. मोहनलाल स्वर्णकार मासलपुर वाले (इन्होंने राजस्थान के पहले टेस्ट ट्यूब बेबी को जन्म देकर पर्याप्त विख्याति बटोरी है।) सुरेन्द्र कुमार जैमिनी (एस.बी.बी.जे. में विशेष सहायक) अंतिम तीनों नाम मुझसे एक कक्षा आगे थे लेकिन इनसे मेरा संवाद होता रहता था। हिण्डौन का एक और नाम जो हमारे साथ पढता था। वह नाम था प्रभाकर आर्य का। गंभीर प्रवृति का वह लड़का बाद में गंभीर लेखन करने लगा। उसने ‘युगदाह’ नाम की एक साहित्यक पत्रिका का प्रकाशन भी किया था। बाद में वह वैदिक साहित्य के उन्नयन की ओर अग्रसर हो गया था।
अब मैं सोच रहा हूं कि लगे हाथ उन अध्यापकों का जिक्र भी करता चलूं जो सदा मेरी यादों के दरीचे से दृष्टिगत् होते रहेंगे। उनमें से एक हैं चंद्रभान जैन जो हमें अंग्रेजी पढाते थे। उन्हें यह बात नापंसद थी कि कक्षा में पढते समय कोई छात्र सो जाए अथवा अपनी ठोडी के नीचे हथेली का
सहारा लगा ले। इसे वे बैसाखी कहा करते थे। वे कहते थे, ‘रिमूव दिस
बैसाखी…।’ हमारी क्लास के तुलसी प्रसाद को उसकी आदत अधिक थी और वह अक्सर अपने हाथ को चेहरे के नीचे लगा लेता था। जैन साहब फौरन टोकते और एक दिन चिढकर बोले, ‘तुलसी तुम जिन्दगी में कुछ नहीं बन सकोगे।’ लेकिन वही तुलसी प्रसाद चतुर्वेदी हमारे ही बीच से प्रशासनिक सेवा में गया। वह जब, बारां में उपजिलाधीश था तो मैं एक बार उससे जाकर मिला था और बीते दिनों को याद कर हम लोग काफी देर तक बातें करते रहे थे। फिर, एक दिन अखबारों में समाचार पढा कि कुछ समय बाद उसी पद पर कार्य करते हुए उसका असामयिक निधन हो गया। खबर पढ़कर कई दिनों तक मन सूना सूना रहा।
चलिए अपने उदास मन को काबू करते हुए पुन: गुरूजनों का स्मरण करता हूं। चन्द्रभानजी को गाने का शौक भी था। वे कृष्ण भजन गाया करते थे। उस भजन के बोल संभवत: इस प्रकार थे- ‘बनवारी म्हारा लाल, तू कोन्या सागै म्हारै। राधा रूक्मणि थारै तो बूढी जाटनी म्हारै…।’ एक बार गंगापुर में सार्वजनिक मंच पर उन्होंने तथा बैंक के अधिकारी विमल चंद जैन ने भजन गाए थे और श्रोताओं को भक्तिभाव में सरोबार कर दिया था। विमलजी हिन्दी-अंग्रेजी पंक्तियों को मिश्रित करके गाया करते थे। उसकी एक लाइन मुझे अभी तक याद है- ‘डोंट टच माइ गगरी मोहन रसिया…।’
कठोर अनुशासन के प्रतीक श्री गंगाचरण पी.टी.आई को भला कौन भूल सकता है? आवश्यकता होने पर स्थानीय प्रशासन भी उनकी सेवाएं लिया करता था। हमारे स्कूल का एक पहलवान कट छात्र श्याम सिंह अपने बांहों की उभरी हुई मछलियां दिखाता घूमता था। एक दफा किसी अध्यापक ने उसकी बांहों को थाम कर कोई बात समझाने का प्रयास किया था तो श्यामसिंह ने शरारत स्वरूप कोहनी मोड़कर गुरूजी की अंगुलियों को अपनी उन मांस पेशियों के मध्य भींच लिया था। मास्टरजी ताकत लगाकर भी अपनी अंगुलियों को आजाद नहीं कर पाए। उन दिनों वह प्रकरण काफी चर्चित रहा था। लेकिन वही श्यामसिंह, गंगाचरणजी के सम्मुख पड़ते ही भीगी बिल्ली बन जाता था। मुझे भी पी.टी.आई. साहब का एक बेंत याद
है। अध्यापक आने के इंतजार के दौरान हमारी क्लास में काफी शोर शराबा हो रहा था। मैं, बेंच पर बैठा हुआ पास बैठे एक सहपाठी को अपने पैर में पहना हुआ नया जूता अपना पैर उठाकर दिखा रहा था कि पीठ पर एक प्रहार हुआ। मैंने चौंक कर पीछे देखा। गंगाचरणजी बेंत लिए हुए, न जाने कब आ खड़े हुए थे और बोल रहे थे, ‘कीप साइलेंट…।’
– प्रभाशंकर उपाध्याय, साहित्यकार