‘यादों के दरीचे’ – आठवीं कड़ी

साठ के दशक में हिन्दी के पाठकों की रूचि में गजब का परिवर्तन आया। उनका रूझान एकाएक पाकेट बुक्स की ओर बढ़ा। एएच व्हीलर्स और बस स्टैंड की दुकानों पर सामाजिक और जासूसी उपन्यास नजऱ आने लगे। जिस प्रकार से आज अधिकांश मुसाफिरों के हाथों में मोबाइल सेट नजऱ आते हैं, कमोबेश वैसे ही उस जमाने में पाकेट बुक्स नजऱ आया करती थीं। गुलशन नंदा, कुशवाहा कांत, प्रेम वाजपेई, रानू, रीमा भारती, सुरेन्द्र मोहन पाठक, ओमप्रकाश शर्मा, वेदप्रकाश काम्बोज, इब्ने सफी बीए, कर्नल रंजीत जैसे पाकेट बुक्स लेखकों के सम्मोहक प्रभाव ने अच्छे हिन्दी साहित्य को कहीं पीछे धकेल दिया था। साहित्यकारों ने इसे लुगदी (पल्प) या फुटपाथी साहित्य कहा लेकिन इनकी लोकप्रियता उत्तरोत्तर बढती ही गई। बाद में तो शहरों तथा कस्बों में ऐसी छोटी-छोटी दुकानें खुल गयीं जहां किराए पर इन्हें उपलब्ध कराया जाता था। बच्चों के लिए कॉमिक्स भी उन्हीं दुकानों पर मिल जाया करते थे। गंगापुर सिटी में अनेक स्थानों में ऐसी दुकान थीं। यहां तक कि गलियों में घर के बाहर वाले किसी एक कमरे में इस तरह की दुकानें खोली जाती थीं। घर का कोई भी सदस्य एक कच्चे रजिस्टर में नाम पता लिख कर उपन्यास या कॉमिक्स किराए पर दे देता था। शनै: शनै: पाकेट बुक्स की लोकप्रियता का आलम कुछ ऐसा परवान चढ़ा कि 1962 में गुलशन नंदा का पहला उपन्यास दस हजार प्रतियों में छपा और बाजार में आते ही बिक गया। लिहाजा, उसकी दो लाख प्रतियां और छापनी पड़ी। उस समय किताब की कीमत थी, पांच रूपये। यात्री उसे खरीदता और उसकी यात्रा कब समाप्त हो जाती उसे पता ही नहीं चलता। बाद में वह, उस किताब को अपने किसी अजीज को देता अथवा अपने कस्बे की किराए वाली पुस्तकों की दुकानों पर आधे दाम में बेच देता था। गुलशन नंदा के उपन्यासों पर 35 फिल्में बनी उनमें से 25 हिट हुईं। रोचक बात यह भी थी कि जिन किताबों को खुले आम पढऩे पर पाबंदी थी, उन पर बनी फिल्मों को देखने के लिए पूरा परिवार साथ साथ जाता था। ओमप्रकाश शर्मा को तो जनप्रिय लेखक कहा गया। वे दिल्ली की बिडला मिल में नौकरी करतेे थे और रात को मजदूरों के मनोरंजन के लिए उपन्यास लिखते। कुछ ही समय में उनकी प्रसिद्धि मिल परिसर से बाहर निकल कर समूचे हिन्दी भाषी क्षेत्र में फैल गयी। उन्होंने लगभग चार सौ उपन्यास लिखे। जासूसी उपन्यासों की अंतिम पीढी के लेखकों में वेदप्रकाश शर्मा सर्वाधिक हिट लेखक हुए थे। उनके उपन्यास ‘वर्दीवाला गुंडाÓ की पहले ही दिन 15 लाख प्रतियां बिकीं। अंतत: उस उपन्यास की कुल आठ करोड प्रतियां बिकीं जो कि एक रिकार्ड है। उस थ्रिलर उपन्यासकार का निधन पिछले दिनों 17 फरवरी को ही हुआ है। बहरहाल, अब यादों के दरीचे की आठवीं कड़ी, आखिर हमारे स्तंभ लेखक भी इन उपन्यासों की चपेट में आने से नहीं बचे। तो पढिए, आठवीं किश्त:.

नवीं कक्षा का रिजल्ट आया। उन दिनों परीक्षा परिणाम प्रार्थना स्थल पर घोषित किए जाते थे। प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए विद्यार्थियों के नाम वहां सार्वजनिक रूप से घोषित किए जाते थे। जिसका नाम बोला जाता था, वह खड़ा हो जाता था। वह, उस छात्र के लिए गर्व की और अन्य विद्यार्थियों के लिए प्रेरणा अथवा ईष्र्या (जो जैसा अनुभव करे) की बात हुआ करती थी।
बहरहाल, जिन छात्रों के नाम बोले गए उनमें मेरा नाम नहीं था। मुझे अपने कक्षाध्यापक की बात याद आ गयी कि आठवीं तक तो फस्र्ट डिवीजन ले आए, अब आगे नानी याद आएगी। तभी एक नाम और बोला गया कि बलबीर सिंह पंजाबी का फस्र्ट डिवीजन एक नम्बर से रह गया। फिर शांति व्याप्त हो गयी। कुछ अंतराल के बाद कहा गया कि अगर दो नम्बर और आ जाते तो प्रभाशंकर उपाध्याय की भी फस्र्ट डिवीजन आ जाती। सच बताऊं, उस समय मुझे इतनी प्रसन्नता प्राप्त हुई कि वह वर्णनातीत है। वर्ष 2013 में राजस्थान साहित्य अकादमी का पुरस्कार घोषित होने पर भी कदाचित मुझे वह हर्षानुभूति नहीं हुई जो 1969 में स्कूल के उस ग्राउंड में खड़े हो कर अपना नाम सुनने में हुई थी। उसके बाद बलबीर और मैं एक ही नाव के सवार हो गए यानी साथ साथ अध्ययन करने लगे ताकि दसवीं में प्रथम श्रेणी से नहीं चूकें।
लेकिन दसवीं कक्षा में अध्ययन के दौरान मुझे उपन्यास पढने के जुनून ने दबोच लिया। उन दिनों सर्वप्रथम मुझे ओमप्रकाश शर्मा का उपन्यास शैतान वैज्ञानिक हाथ लगा। उसे मैंने पढना आरंभ किया तो अंतिम पृष्ठ पर पहुंच कर ही दम लिया। इसके बाद दूसरा उपन्यास ‘घूंघटवाली ‘ पढा। वह एक सामाजिक उपन्यास था, लेखक का नाम याद नहीं किन्तु कथा अभी तक याद है। हमारी कक्षा का एक विद्यार्थी अक्सर मुझे जासूसी उपन्यासों के बारे में बताया करता था। वह कहता था कि उसके पास इतने उपन्यास हैं कि उनसे एक पीपा भरा हुआ है। उसने वे पुस्तकें कनस्तर में इसलिए भरी थीं कि घरवालों को उसकी भनक तक न लगे। उसने यह भी बताया था कि वह बड़ा होकर जासूस बनना चाहता है।
बहरहाल, एक दिन उसने दो उपन्यास मुझे पढने के लिए दिए। वे संभवत: वेदप्रकाश काम्बोज और इब्ने सफी के थे। उसके बाद उसने मुझे कुछ उपन्यास पढने के लिए और दिए। सावधानी हेतु मैंने उन पर अखबार अथवा सोवियत लैंड या सोवियत नारी पत्रिकाओं के कवर चढा दिए तथा एक-एक कर पढने लगा। रस आता चला गया। मां-बाप यह सोचकर खुश थे कि बेटा दत्तचित होकर दसवीं की पढाई कर रहा है। लेकिन एक-दिन चोरी पकड़ी गयी। अच्छी खासी कुटाई हुई। अत:, कुछ दिनों तक अघ्ययन पर ध्यान केन्द्रित किया। तभी कुशवाहा कांत का एक उपन्यास हाथ आया ‘लाल रेखा ‘ और मेरा मन पुन: भटक गया। इस बार उपन्यासों को पाठ्य पुस्तकों के बीच रखकर पढता। बलबीर सिंह पंजाबी अक्सर मेरे पास पढने आया करता था। वह मुझे उपन्यास पढते देख कहता कि प्रभा तुझे अपना ध्यान बोर्ड परीक्षा की ओर देना चाहिए। वह मेरे माता-पिता को भी उपन्यासों की बात बता देने की धमकी देता था। अत: जब तक वह मेरे साथ होता, हम दोनों पाठ्य पुस्तकें ही पढते थे किन्तु उसके घर से जाते ही मैं फिर उपन्यासों की दुनिया में जा डूबता। – प्रभाशंकर उपाध्याय, साहित्यकार