अभी कुछ दिनों पहले गंगापुर सिटी का स्थापना दिवस उत्साहपूर्वक मनाया गया था। हम, प्रसंगवश अपने पाठकों को गंगापुर के अतीत की कुछ जानकारी दे रहे हैं। गंगापुर सिटी को इस समय खीर मोहन, टिक्कड़ रोटी और आलू की विशेष सब्जी के लिए जाना जाता है। कुछ दशक पूर्व इसे भाप इंजनों के शेड तथा कृषि उपज मंडी के नाम से पहचाना जाना जाता था लेकिन इससे पूर्व गंगापुर की विख्याति नीम, मुनीम, मंदर और बंदर के नाम से थी। इस लोकोक्ति को पुराने लोग बयां किया करते थे। उनके कथनानुसार गंगापुर कस्बे में नीम के पेड़ों की बहुतायत थी। गंगापुर के मुनीम भी बेहद लब्धप्रतिष्ठ थे। वे जहां रहते थे वह मोहल्ला मुनीम पाड़ा के नाम से जाना जाता है। मुनीम परिवार में राधाकृष्ण मुनीम का जयपुर दरबार में बड़ा मान था। वे रियासत की ओर से यहां के दीवान कहे जाते थे और दीवानी मामलों की सुनवाई करते थे। उनके पुत्र रामसहाय मुनीम ने भी समाजसेवी के तौर पर प्रतिष्ठा पाई। इस परिवार के प्रमोद सागर ने बताया कि 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान उनके दादाजी ने अपनी बंदूक तथा खाली चैक हस्ताक्षर करके तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को प्रेषित करते हुए लिखा था कि आपको जितनी भी राशि की जरूरत हो आप, इस चैक में भर लें। प्रमोद बताते हैं कि नेहरूजी ने आभार जताते हुए पत्रोत्तर दिया था कि जब तक आप जैसे नागरिक इस देश में हैं, हमारे हिन्दुस्तान का कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता। इस मुनीम परिवार को उनके एक अविस्मरणीय भोज तथा उनकी एक शादी में हाथी पर दूल्हे की सवारी निकालने के लिए भी याद किया जाता है। उस भोज में पूरे गंगापुर को न्यौता देने के साथ ही गंगापुर से गुजरने वाले यात्रियों को भी रोक रोक कर भोजन कराया गया था। बुजुर्गजन तो यह भी बताते हैं कि उस हेतु रेलगाडिय़ों और मोटरों को भी रोका गया था। अब मंदिरों की बात। गंगापुर सिटी में मंदिरों का वर्चस्व भी रहा है। कल्याणजी, बद्रीनाथजी, सीतारामजी, गोपीनाथजी, गोपालजी, दाऊजी, गंगाजी, बालाजी आदि अनेक मंदिर हैं। एक मंदिर मुनीमों का भी बताया जाता है। इसके साथ ही नगर के मध्य में एक पुराना जैन मंदिर है। कभी यहां के बंदर भी बड़े प्रबल थे। उन दिनों जब गंगापुर में पाटोरपोश घर अधिक थे तो उन खुले घरों में ये जमकर उत्पात मचाते थे और उस काम में नीम के विशाल पेड़ उनके लिए वरदान सिद्ध होते थे। मुनीमों की हवेली में जयपुर रियासत के राजा रामसिंह के कैमरे से खींचा गया एक चित्र हम यहां प्रकाशित कर रहे हैं। इसमें राजसी पुरुषों के साथ राधाकृष्ण मुनीम तथा रामसहाय मुनीम दृष्टव्य हैं। यह चित्र हमें इंडियन क्लॉथ स्टोर के भविष्य कुमार अग्रवाल के सौजन्य से प्राप्त हुआ है। इसके साथ ही पढिए यादों के दरीचे की पंद्रहवीं कड़ी…
उसी रात सोते-सोते, एकाएक दिमाग में बिजली सी कौंधी और मैं चौंक पड़ा, ‘अरे, यह तो फलांने (मैं, उस नाम को गोपनीय रखना ही उचित समझता हूं।)शख्स की राइटिंग है। वह शख्स कुछ दिनों तक मेरा रूम पार्टनर भी रहा था तथा गंगापुर सिटी का ही मूल निवासी था। सुबह मैंने पिताजी को सारी बातें बतायीं और अजमेर जाने की अनुमति मांगी। वे मेरी बातों से सहमत हुए किन्तु माताश्री इस बात पर अडिग रहीं कि अब यह अजमेर नहीं जाएगा। अंतत:, वे मेरे इस तर्क पर सहमत हो गयीं कि यदि वहां जाकर मैंए उस लड़के की कॉपी से फाड़े गए उस पृष्ठ को दिखा दूंगा कि सचमुच यह पेज वहीं से फटा है तो मुझे अजमेर से परीक्षा देने की इजाजत मिल जाएगी। अत: पिताजी को भी उन्होंने मेरे साथ अजमेर भेजा ताकि सनद रहेे।
जब, हम हॉस्टल पहुंचे तो अधिकांश छात्र कॉलेज गए हुए थे। वह भी अपने कमरे में नहीं था। हॉस्टल में हम लोग द्वार पर प्राय: ताला नहीं लगाते थे। बाहर जात वक्त, सिर्फ कुंडी अटका देते थे। हां, अपने व्यक्तिगत बक्सों में अवश्य ताला लगाया करते थे। मैंने उसके कमरे में घुसकर प्रेक्टीकल वाले उस रजिस्टर को ढूंढा। उसके बिस्तरों पर कुछ रजिस्टर पड़े थे। उनके पन्ने पलटे तो संयोगवश उनमें से एक रजिस्टर ऐसा मिला जिसका एक पना फटा हुआ था।। मैंने फटे हुए भाग के साथ फिरौती वाली चिट्ठी के पृष्ठ को रखा तो उसके फटे हुए किनारों से पत्र के किनारों में मिलान हो गया। पिताश्री आश्चर्यचकित होकर मुझे देखते रह गए। अब, वे पूरी तरह आश्वस्त हो गए थे कि वह कारिस्तानी इसी लड़के की है। शाम को जब वह कॉलेज से लौटा तो पिताजी ने
डपट कर पूछा, ‘क्यों रे, क्या यह बदमाशी तूने की थी? ‘ एकबारगी तो वह हक्का-बक्का रह गया। फिर साफ मना कर गया। पिताश्री ने तमाचा मारने की मुद्रा में हाथ उठाया, ‘बदमाश! एक रहपट पड़ेगा तो यहीं मूत देगा। ‘
पिताजी का गुस्सा देख, वह बोल गया कि यह सब उसका ही किया धरा है। मैंने पूछा, ….! तूने ऐसा क्यों किया? तो वह बोला कि द्वितीय वर्ष की परीक्षा तक तेरे अंक मेरे अधिक थे और तृतीय वर्ष की परीक्षा में मैं हर हाल में तुझे पछाड़ देना चाहता था। और इसी मकसद से उसने मेरे अध्ययन में व्यवधान उत्पन्न करने के लिए यह सब किया था। प्रसंगवश मैं, यहां यह भी बता दूं कि उसे भी जासूसी उपन्यासों को पढने का गजब शौक था।
यूं तो उसकी प्रवृति शरारती किस्म की थी लेकिन उसमें सतर्कता भी कूट-कूट कर भरी थी। उसके प्रमाणस्वरूप दो घटनाओं का वर्णन कर रहा हूं। 1971 के हिन्द-पाक युद्ध में हमारे हॉस्टल के पास स्थित रेलवे सुरक्षा बल की बैरकों के पास घूमते हुए एक शख्स को पाकिस्तानी जासूस होने के संदेह में हमने पकड़ा था, उस व्यक्ति पर पहला शक उसे ही हुआ था और उसने हमें संकेत किया तो हम तीन-चार जनों ने उसे दबोच लिया था और फिर उस व्यक्ति को पुलिस के हवाले कर दिया। बाद में पुष्टि भी हो गयी कि वह, वाकई पाक जासूस था।
इसी तरह उस लड़के ने उन दिनों हमें एक सुराग और दिया था। युद्ध के दौरान कुछ व्यापारियों ने रोजमर्रा के काम आने वाली घरेलू सामग्री की जमा खोरी करके बाजार में उन वस्तुओं का कृत्रिम अभाव कर दिया था। उनमें से एक आइटम मिट्टी का तेल भी था। उस लड़के ने ही हमें सूचना दी कि कचहरी रोड (अजमेर) के एक दुकानदार ने केरोसिन के कुछ ड्रम नाले के पास वाले एक गोदाम में छिपाए हुए हैं। बस फिर क्या था? हम चार पांच नौजवानों की टीम उस गोदाम के सामने पहुंच गयी। दो जने उस दुकानदार को वहां बुला लाए। उसने आते ही कहा कि इन ड्रमों में घासलेट नहीं बल्कि टरपेनटाइन (तारपीन का तेल) है। हमारे हॉस्टल का ही एक छात्र ताराचंद शर्मा ड्रांइग विषय में एम.ए. कर रहा था। वह बोला, ‘ड्रम खोलो। अगर टरपेनटाइन हुआ तो मैं सूंघ कर ही बता दूंगा।’ क्रमश… – प्रभाशंकर उपाध्याय, साहित्यकार