यादों के दरींचे- ‘रेेलवे स्टेशन के इर्द-गिर्द’ (भाग-1)

PrabhaShankar Upadhyay

बढ़ती कलम वेबसाइट पर हम एक नया स्तंभ प्रारंभ कर रहे हैं, ‘यादों के दरींचे’। गंगापुर सिटी के मूल निवासी और जाने माने साहित्यकार प्रभाशंकर उपाध्याय अपनी गंगापुर, करौली, सवाईमाधोपुर और हिण्डौन से जुड़ी पुरानी स्मृतियों के साथ हमसे जुड़ रहे हैं। इससे उस समय की शिक्षा, संस्कृति, इतिहास और व्यक्तित्वों को जानने का मौका हमें मिलेगा। पाठकों से अनुरोध है कि उपरोक्त नगरों से संबंधित पुराने चित्रों तथा उनके संस्मरणों का भी हम स्वागत करेंगे। उन चित्रों तथा लेखों को हम इसी लेख माला में प्रकाशित करेंगे। साथ ही यह भी अनुरोध है कि संस्मरणों में किसी पर व्यक्तिगत आपेक्ष नहीं होना चाहिए।इस लेख माला की प्रथम किश्त में हम गंगापुर सिटी रेलवे स्टेशन का एक पुराना चित्र दे रहे हैं। यह चित्र रेलवे के मंडल कार्यालय, कोटा में संग्रहित है। इसे उपाध्याय ने हमारे लिए वहां से प्राप्त किया है। उल्लेखनीय है कि हमारे जिले में रेल लाइन सन् 1908 में स्थापित हुई थी। इसे सवाईमाधोपुर से कोटा के मध्य मालगाडिय़ों के लिए एक मई 1909 को तथा उसके दो माह बाद सवारी गाडिय़ों के लिए इसी खंड पर संचालन के लिए खोला गया था। जून 1909 में इस रेल लाइन को सवाईमाधोपुर से मथुरा के लिए खोला गया था। तत्पश्चात् एक अक्टूबर 1909 को दोनों तरह की रेलगाडिय़ों के लिए सम्पूर्ण रूप से खोल दिया गया था।  प्रभाशंकर उपाध्याय अपने लेख की प्रारंभिक किश्तों में रेलवे के उन गौरवशाली दिनों की याद करते हुए अपने संस्मरण लिख रहे हैं। अत: प्रस्तुत है, यादों के दरींचे की प्रथम किश्त – 

अपना बाल्यकाल गंगापुर सिटी के रेलवे स्टेशन, कैरिज एण्ड वक्र्स तथा यार्ड के इर्द-गिर्द ही बीता। रहते थे, रेलवे कॉलोनी में और पढ़ते थे, रेलवे स्कूल में। पिताजी रेल गाड़ी परीक्षक थे, जिन्हें उस समय टी.एक्स.आर. कहा जाता था। स्टेशन के ठीक सामने टी.एक्स.आर. ऑफिस था। बाद में वे प्रधान गाड़ी परीक्षक बने। मैं, स्कूल जाते समय स्टेशन तथा टी.एक्स.आर. ऑफिस के बीच बनी सड़क से गुजरता था क्योंकि हमारा क्वाटर ताजपुर वाले नाले के किनारे और रेलवे केबिन के पीछे स्थित था। उस समय रेलवे स्टेशन पर टीन शेड तथा ओवर ब्रिज नहीं था। भाप के इंजन जब, अपनी बगल से तीव्र गति से, तेज आवाज के साथ भाप का निष्कासन करते तो बहुत डर लगता था और उतना ही डर इंजन की भट्टी से लपलपाती आग को देख कर लगता था। लेकिन, जब इंजन से भी ऊंचे और विशाल नलके से इंजन के हौद में तेजी से गिरते पानी को देखना सुखद अहसास देता था। और जब इंजन स्टार्ट होता भक…भक…छुक…छुक…तो हम बच्चे ठिठक जाते थे। उसकी एक वजह यह होती थी कि कभी कभी स्टार्ट होते वक्त इंजन के पहिए फिसल जाया करते थे।
तब, वह गाड़ी एक इंच भी आगे नहीं बढ़ती थी। ऐसा अधिकतर मालगाडिय़ों के साथ हुआ करता था। पहियों के तेजी से फिसलने के साथ पिस्टन भी बड़ी तेजी से आगे पीछे हुआ करता था। कुछ बच्चे तो इंजन की मुद्रा बना कर, पिस्टन की क्रियानुसार अपने दोनों हाथों को आगे-पीछे किया करते थे। जब, इंजन आगे बढ़ता तो वे भी आगे चलते जाते। उस समय ध्वनि प्रदूषण इतना नहीं था, अत: जाती हुई गाड़ी की आवाज दूर से भी सुनाई देती थी। धड़क…धड़क…छुक…छुक…छपक…छपक….या जैसी भी कल्पना में आ जाए। उस लयबद्ध ध्वनि में मनमोहक संगीत की प्रतीति होती थी और उसमें इंजन की कर्कश सीटी का ठेका लगता जाता था।
स्कूल को जाने वाले मार्ग पर रेलवे स्टेशन के बाद ताजपुर जाने वाली रेल लाइन पड़ती थी। माता-पिताओं द्वार यह चेतावनी बच्चों के पूर्व में ही दे दी गयी थी कि उसे पार करते समय हम देख लें कि कोई ट्रेन आ तो नहीं रही, हालांकि वहां एक मालगाड़ी अक्सर हमें खड़ी मिलती थी। रेलवे स्कूल के सामने लोको शेड था। उसे देखते रहना भी रोमांचकारी अनुभव था। और सबसे ज्यादा रोमांच तो तब होता, जब अचानक सायरन बज उठता था…आं…आं…एं…एं…ऽ…ऽ…ऽ…। यकायक हुई उस आवाज से हम लोग यक-ब-यक चिहुंक जाया करते थे। यूं तो सायरन बजने का सुबह और शाम का समय निर्धारित था और आज भी यह बजता है किन्तु कभी-कभार ‘डिरेलमेंट’ होने पर वह सायरन दो-तीन बार बजाया जाता ताकि संबंधित स्टॉफ  सूचित हो सके। उस समय सायरन की ध्वनि मीलों दूर तक सुनाई देती थी। मुझे याद है कि मिर्जापुर के एक गांव में एक भोज के समय पर हमारा परिवार जब वहां था तो रेलवे के सायरन की गूंज वहां तक सुनाई दी थी। तब, मैं पहली कक्षा का छात्र था। स्कूल में जिस जगह हमारी कक्षा लगती थी, वह खुला स्थान था। उस पर सीमेंट की चद्दर वाली छत पड़ी थी। हमें वहां से लोको शेड की वह ऊंची जगह साफ  नजऱ आती थी, जिससे इंजन में कोयला भरा जाता था और साथ ही ऊपर की ओर जाता एवं नीचे आता कोयला भी स्पष्ट नजऱ आता था। खाली पीरियड में हम उस क्रिया को ही देखा करते थे।
तब, पाठ्य सामग्री के नाम पर सिर्फ  स्लेट, बरता तथा एक हिन्दी की पोथी हुआ करती थी। वह पोथी संभवत: गीता प्रेस गोरखपुर का प्रकाशन थी और वह जगन्नाथ घूड़मल की दुकान पर मिला करती थी। उसमें अक्षरों के साथ छपे खाने-पीने के चित्र हमें अधिक लुभाते  थे। जैसे ‘ई’ की ईख और ‘ज’ की जलेबी मुंह में मिठास भर देती थी। उन चित्रों पर हाथ फेर कर ही उन्हें खाने की कल्पना कर लेते थे। इसी तरह ‘ए’ का एक तारा कैसे बजता है, इसकी भी कल्पना भी कर लेते थे। दो चित्र और मेरे आकर्षण के केन्द्र बिन्दु थे। वे थे ‘र’ का रथ तथा ‘ट’ का टमटम। तब गंगापुर सिटी में साइकिलें और बैलगाडिय़ां तो बखूबी दिखती थीं किन्तु रथ और टमटम का दिखाई देना कल्पनातीत ही था। किसी एक पुस्तिका में रथ का एक चित्र और हुआ करता था। वह एक पाठ के साथ था। रथवान उसे हांक रहा है और नीचे पाठ लिखा है, जगदीश उठ। रथ में बैठ। विद्यालय जा। जगदीश के भाग्य पर मुझे ईष्र्या हुआ करती थी कि उसे लेने रथ आया है और हमें पैदल आना जाना पड़ता है।
अब, जब वाहनों की चर्चा चल निकली है तो उस तीसरे वाहन की भी बात कर लें जो उन दिनों मेरा ध्यानाकर्षण अक्सर किया करती थी और वह थी भैंसा गाड़ी। गाड़ी में जुता हुआ, काला कलूटा, हष्ट-पुष्ट और मोटा बलशाली भैंसा, जो अपनी मंथर गति से चलता जाता था। 
भैंसा गाड़ी उन दिनों प्राय: मैला ढोने के काम आती थी। काले रंग से पुता हुआ एक विशाल पात्र गाड़ी में रखा होता था। हर क्वाटर के शौचालय में रखे पात्र से अपशिष्ट पदार्थ को भैंसा गाड़ी के पात्र में उलेड़ दिया जाता था। उस संग्रहण से खेतों को मुफ्त में आर्गेनिक खाद उपलब्ध हो जाती थी। इससे सर पर मैला ढोने की कुप्रथा पर भी अंकुश लगा था।पुराने शौचालयों की बाबत एक रोचक वाक्या मुझे और याद आ रहा है। इसे एक बुजुर्ग सज्जन बड़े चाव से सुनाया करते थे। उस समय तो मुझे समझ नहीं आता था किन्तु अब अवश्य आता है।     वे बताते थे कि एक बंगले में अमरूद का एक पेड़ था जो बारहमास फल देता था। उस पर पक रहे अमरूदों की गिनती अंगुलियों पर की जा सकती थी, अत: उस बंगले के स्वामी को उनकी संख्या बराबर याद रहती थी। एक सुबह उन्होंने देखा कि दो अमरूद कम हैं। दो दिन बाद फिर दो अमरूद चोरी हो गये। उसके बाद हर दूसरी-तीसरी रात को यही होने लगा। स्वामी चिंतित हो गये कि चोर कौन हैं? पहरेदारी भी की किन्तु कुछ नतीजा नहीं निकला। अंतत: उन्हें एक उपाय सूझा। दूसरे दिन शौचालय की सफाई करने वाली महिला कर्मचारी जब आयी तो उन्होंने उससे कहा, ‘महाराजिन! अगर मेरा एक काम करोगी तो मैं तुम्हें दस रुपए के इनाम के साथ दो अमरूद भी मुफ्त दूंगा।’ वह बोली, ‘जो हुकुम हुजूर!’
वे बोले, ‘कोई मेरे पेड़ से अमरूद चुराकर खा रहा है। तुम घर घर जाकर मैला साफ  करती हो। तुम्हें यह बता दूं कि अमरूद का बीज पचता नहीं और वह मल में निकल जाता है। चूंकि इस समय इस फल की ऋतु नहीं है। अत: तुम्हें यह आसानी से पता लग जाएगा कि अमरूदों का चोर कौन है?  पांच-छह दिन के बाद महाराजिन ने आकर कॉलोनी के एक क्वाटर के मैले से अमरूद के बीज मिलने की पुष्टि की। जब वहां पूछताछ की गयी तो एक लड़के ने वह चोरी कबूल कर ली। पता नहीं कि इस किस्से में कितनी सच्चाई है?, किन्तु मैं इसे महज मनोरंजन के लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ। 
चलिए फिर स्कूली संसार का रूख करते हैं, क्योंकि अभी तो मेरा बचपन ही चल रहा है।