‘यादों के दरीचे’ – ग्यारहवीं किश्त

नवान्न के पकते ही अर्थात् होली के पश्चात् भारत में पर्वों और मेलों का सिलसिला शुरू हो जाता है। हमारे शहर गंगापुर सिटी में शीतला माता, गणगौर उत्सव तथा कल्याणजी के मेले क्रमश: आयोजित होते रहे हैं। जब करौली जिले वाला भाग हमसे जुड़ा था तो कैलादेवी तथा श्रीमहावीरजी के लक्खी मेले भी इसी समयावधि शुमार होते थे। अलग जिला बनने के बावजूद हमारी आस्था इन मेलों के प्रति रंच मात्र भी कम नहीं हुई है। सेड माता और गणगौर पूजन की आस्था का जुड़ाव महिलाओं के साथ विशेष है। होली की राख से ईसर और पार्वती की मूर्तियां बनती थीं। स्त्रियां सिर पर पांच कलश रखकर, कुओं से पूजन के लिए पानी लाती थीं तथा सोलह दिन तक गणगौर पूजी जाती थीं। छोटे छोटे बच्चों में भी सम्पूर्ण साज श्रृंगार के साथ ईसर और गौरां बनने का अनूठी ललक हुआ करती थी। नगर परिषद गंगापुर की ओर से गणगौर की सवारी निकालने की परंपरा बहुत पुरानी है। सैंतीस वर्ष पुरानी गणगौर की शोभायात्रा का एक चित्र हम यहां प्रकाशित कर रहे हैं। इस चित्र में नगरपालिका के पुराने कर्मचारी नजऱ आ रहे हैं। तो अब चलें, प्रभाशंकर उपाध्याय के यादों के दरीचे की ग्यारहवीं किश्त में

प्रभाशंकर उपाध्याय, साहित्यकार

पिछली कड़ी में आपने पढा कि दसवीं की परीक्षा में स्वयं के फस्र्ट डिवीजन पास होने पर खुशी के मारे बलबीर मेरा रोल नंबर भी भूल गया था लेकिन रिजल्ट वाला अखबार उसके घर पर ही था। अत: वह उसे लेने चला गया था। हमारे घर के ठीक पीछे वाली सड़क यानी जहां पत्तल-दोने वाली गली है, उसी पर थोड़ा
आगे बलबीर का घर है। पांच मिनट में बलबीर वह पेपर ले आया। चूंकि उपन्यासों के शौक ने मेरा बहुत समय जाया किया था अत: मुझे प्रथम श्रेणी की उम्मीद तो थी ही नहीं इसलिए मैंने द्वितीय श्रेणी के कॉलम से परिणाम देखना प्रारंभ किया। उसमें मेरा रोल नंबर नहीं था। फिर तृतीय श्रेणी के कॉलम को देखाए वहां भी नहीं था। और फिर सप्लीमेंटरी देखी, मेरा रोल नंबर गधे का सींग हो गया था। पिताजी गुस्से से बोले, ‘लै हो गयो नी फेल। अरे हम तो पेल्या ही जाने हांए जब तू रिजल्ट देखवा कूं नहीं जा रियो हो और या मंजन कूं लेके बैठ गयो।’ मैं अपना सिर झुकाए अपराधबोध से दबा हुआ अपने उपन्यासों के शौक को कोस रहा था।
तभी सहपाठी रमेशचंद गुप्ता ने हमारे घर में एंट्री मारी। वह सीढी चढते ही बोला, ‘प्रभा! मैं भी फस्र्ट डिवीजन पास हुयो हूं और तू भी।’ दरअसल, हम नजदीकी दोस्तों ने एक-दूसरे के रोल नंबर रटे हुए थे। मैंने अपना माथा पीट लिया, अरे फस्र्ट डिवीजन में तो अपना नंबर देखा ही नहीं। बलबीर ने अपना अखबार फिर फैलाया। प्रथम श्रेणी के कॉलम में मेरा रोल नंबर 55422 चमचमा रहा था। अबए सारा अपराध बोध विलुप्त हो गया था। बाद में, जब अंकतालिका आयी तो कुल पूर्णांक में से मेरे 66 प्रतिशत से अधिक अंक थे।
उस वर्ष बॉयोलॉजी विषय के सात या आठ छात्र प्रथम श्रेणी आए थे। उनमें पांच तो हम ही थे। बलबीर, रमेश, मोहन, रामदयाल और मैं। छठवें सत्यनारायण तुलारा का भी मुझे घ्यान है, शेष का नहीं। हमारे अध्यापक कहते थे कि स्कूल में पहली बार ऐसा हुआ है कि किसी एक कक्षा में इतने विद्यार्थी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए हैं। इनमें मोहन और रामदयाल जो आगे चल कर डॉक्टर बने, मोहन के कक्षा में सबसे अधिक अंक थे लेकिन मेरे अंग्रेजी और गणित में मोहन से भी ज्यादा थे। यूं तो गणित में मुझे शत-प्रतिशत अंक आने की पूरी उम्मीद थी लेकिन मेरा अति आत्मविश्वास मुझे ले डूबा था।
उस अति विश्वास के पीछे की कहानी यह है कि किसी महापुरुष के जीवन चरित में मैंने पढा था कि उन्होंने गणित की परीक्षा में पूछे गए सारे सवाल हल कर दिए थे जबकि प्रश्न-पत्र जबकि परीक्षार्थी को अपनी पसंद के सवाल चुनने का विकल्प था। जीवनी में लिखा था कि उन महापुरुष ने शत-प्रतिशत अंक हासिल किए। लेकिन मैं महापुरुष तो था नहीं। अलबत्ता, उनका अनुसरण करने की कोशिश में मुंह की खायी। मैंने भी उसी स्टाइल में परीक्षा पत्र के सारे सवाल हल कर दिए और सबसे अंत में लिख दिया था। प्लीज, चैक एनी फॉइव। मेरा मानना है कि परीक्षक ने कोई पांच हल जो जांचे थे, उनमें एक हल गलत था और उस गलत उत्तर की वजह से कुल पूर्णांक में से आठ नम्बर कम आए और मुझे बीज गणित के एक प्रश्न के हल में थोड़ा सा संशय था और संभवत: उसी गलत जवाब ने मेरे नम्बर काट दिए थे। इस प्रकार गणित प्रश्न-पत्र के कुल पूर्णांक 50 में से मुझे 42 अंक अर्थात् 84 प्रतिशत नंबर मिले। अबए आपके मन में एक सवाल यह भी उठ सकता है कि मेरे एक से ज्यादा जवाब भी तो गलत हो सकते थे लेकिन मेरा मानना है कि अगर ऐसा होता तो मेरे नम्बर और भी कम हो जाते क्योंकि प्रत्येक प्रश्न दस अंकों का था। मेरा यह भी मानना है कि यदि मैं महापुरूष बनने के ओवरकांफिडेंस में नहीं पड़ता और केवल पांच प्रश्नों को कांफिडेंस के आधार पर चुन कर हल करता तो संभवत: सौ प्रतिशत अंक आ जाते। लेकिन उस ठोकर से मुझे भविष्य में सावधान हो जाने का सबक मिला और आगे नौकरी संबंधी प्रतियोगी परीक्षाओं में इस ठोस प्रश्न ही हल किए।
परिणामत: राजस्थान लोक सेवा आयोग की एक परीक्षा में गणित के पेपर में मुझे सौ प्रतिशत अंक मिले थे। बाद में एक समय वह भी आया था कि मेरे पास एक के बाद एक छ: सरकारी नौकरियों के नियुक्ति पत्र थे। उनमें से मैंने पहले पहल आयी भारतीय खाद्य निगम की नौकरी को ज्वाइन किया लेकिन बैंक में चयन होने पर चालीस दिन के बाद उसे छोड़ कर बैंकिंग सेवा में चला आया
– प्रभाशंकर उपाध्याय, साहित्यकार