‘यादों के दरीचे’ – सातवीं कड़ी

यादों के दरीचे की इस कड़ी में हम गंगापुर सिटी के 1965 से 1972 के परिदृश्य का वर्णन कर रहे हैं। इन सात सालों में गंगापुर कस्बे का कुछ विकास होना प्रारंभ हुआ था। ट्रक यूनियन के पास वाले गढ़ में उच्च जलाशय के निर्माण हुआ तथा नलों द्वारा जलापूर्ति प्रारंभ हुई। प्राइवेट बस स्टैंड भी उन्हीं दिनों में बना तथा नेहरू उद्यान का निर्माण भी हुआ। नगर सुधार न्यास (यूआईटी) ने नई कॉलोनी विकसित की। औद्योगिक क्षेत्र प्रस्तावित होने के बावजूद अनेक बड़े उद्योग जनप्रतिनिधियों की उदासीनता से स्थापित होते होते रह गए। जबकि कृषि उत्पाद पर आधारित आठ चावल मिलें तथा 25 ऑयल मिल्स गंगापुर सिटी में निजी उद्योग के तौर पर स्थापित थीं। सिलिका सेंड भी यहां से कांच की फैक्ट्रियों को खूब भेजी जाती थी लेकिन उसके बावजूद कांच का उद्योग स्थापित करने का कोई गहन प्रयास नहीं किया गया। उन दिनों वर्षा खूब होती थी। सवाईमाधोपुर जिले को राजस्थान की चेरापूंजी कहा जाता था। एक साल में लगभग 35 दिन तो अच्छी बरसात हो ही जाया करती थी। 11 अगस्त 1972 का दिन गंगापुर सिटी में ऐसा आया कि झमाझम वर्षा जो शुरू हुई तो उसने रूकने का नाम ही नहीं लिया। चौबीस घंटे में 264 एमएम का रिकार्ड बना जो पूरे वर्ष की वर्षा का एक तिहाई से भी अधिक था। उन दिनों धान, सरसों, तिल तथा मूंगफली की पैदावार बहुतायत से हुआ करती थी। इस बार हम गंगापुर की नहर का अठारह साल पुराना एक चित्र प्रकाशित कर रहे हैं। नहर में तब उतनी गंदगी नहीं थी। पानी इतना साफ था कि चित्र में गढ की परछाई स्पष्ट नजऱ आ रही है। अब तो वहां बदबू तथा बदहाली का आलम है। लिहाजा सातवीं किश्त प्रभाशंकर उपाध्याय की कलम से…

दसवीं कक्षा में हमें मेंढक पकडऩे का शौक चर्राया था। उस समय हमारे हॉयर सैकेंडरी (अब सीनियर सैकेंडरी) स्कूल से उदेई तिराहे तक पर उतनी घनी आबादी नहीं थी। कुछ चावल और तेल मिलें थीं। काफी जमीनें खाली पड़ी थीं। बबूल और बेरों की झाडिय़ां ही झाडिय़ां ही थीं। नीची जगहों पर पानी भर जाया करता था। उनमें मेंढक टर्राया करते थे। उन दिनों जीव विज्ञान के विद्यार्थियों को मेढकों, मछलियों तथा कॉकरोचों जैसे छोटे छोटे जन्तुओं का विच्छेदन (डिसेक्शन) करना सिखाया जाता था। इसके लिए प्रत्येक छात्र को एक शल्य बॉक्स खरीदना होता था। अवकाश के दिन हमारी मित्र मंडली उदेई मोड़ के लिए निकल लेती थी और वहां के पोखरों में टर्राते मेढ़कों विशेषत: राना टिग्रिना प्रजाति को पकडऩे की कोशिशें करतीं। शुरूआत में उस लिजलिजे प्राणी को पकडऩे में हिचक होती थी। उसका लिसलिसापन तथा उसके शरीर से आती अजीब सी गंध को महसूस करते ही हम उसे छोड़ दिया करते थे। बाद में उसकी आदत हो गई। हम मेंढकों को पकड़कर किसी ऐसे सहपाठी के घर ले जाते थे, जहां पर्याप्त एकांत हुआ करता था। नमक के सांद्र घोल में मेंढकों को कुछ घंटे डुबोकर रखा जाता ताकि वह बेहोश हो सके। तत्पश्चात् उन्हें निकाल कर देखा जाता। जो मेंढक निश्चल प्रतीत होता उसे हम अपने डिसेक्शन हेतु चुनते। शेष को सादे पानी में डाल देते ताकि वे होश में आ सके। घर पर किसी जन्तु की चीर फाड़ का कार्य भी बड़ा हौसले वाला था। प्रयोगशाला में तो ट्रे में जमे मोम के ऊपर चित्त अवस्था में मेंढक की चारों टांगों को पिन से फिक्स करके हमें दिया जाता था। लेकिन घर पर किसी पात्र में मेंढक को पीठ के बल लिटा कर उसका विच्छेदन करना काफी कठिन था। कभी-कभी चीरा लगाने की हमारी कोशिश में ही वह होश में आ जाता था और उछल कर बैठ जाता था। जब, हमने जीव विज्ञान विषय लिया था तो पहले ही दिन हमारे जीव विज्ञान के अध्यापक पाठक साहब ने हमें संबोधित किया था कि इस विषय में हमें एनीमल्स का डिस्केशन करना होगा। यदि किसी विद्यार्थी को अभी कोई झिझक हो या बाद में वह बहते हुए खून को देखकर भाग खड़ा होगा या उल्टियां करने लगेगा तो अभी उसके पास विषय बदलने का मौका है। बाद में विषय बदला नहीं जाएगा और प्रेक्टीकल में जीरो नंबर दिए जाएंगें। यह सुनकर कुछ छात्रों ने अपने विषय बदले। उनमें रामदयाल भी था किन्तु कुछ दिनों के बाद वह पुन: बॉयोलोजी में आ गया और बाद में वह डॉक्टर भी बना। मेरे गणित में बहुत अच्छे अंक थे अत: पाठकजी ने मुझे कहा कि मैं मेथेमेटिक्स लूं लेकिन मैंने अपना इरादा नहीं बदला। चित्त लेटे बेसुध मेंढक के पेट की खाल चिमटी से धीरे से खींचो फिर कैंची से उस त्वचा को इस तरह चीरो कि कोई मुख्य धमनी न कटे। अगर वह कट गयी तो समझो कि आपका सारा खेल फेल हो गया। महाधमनी से बहता रक्त रूकता ही नहीं था। ट्रे का पूरा पानी लाल हो जाता था। अत: पहली सावधानी खाल काटने में ही बरती जाती थी। लैब में तो यदा कदा ही प्रेक्टीकल होते थे किन्तु घर पर इसका हमें अच्छा अभ्यास हो गया था।
मेंढकों की पकड़ा धकड़ी के उस दौर में एक बार ऐसा रोमांचक क्षण भी आया कि मेरे रोंगटे खड़े हो गए और फिर मेंढकों को पकडऩे से तौबा कर ली। हुआ यूं कि पानी के किनारे बैठे एक मेंढक को पकडऩे के लिए मैंने हाथ मारा, उसी मेंढक की घात में एक सर्प झाडिय़ों में छिपा बैठा था। इधर मेरा हाथ पड़ा और उधर सांप ने फंफकारते हुए फन मार दिया। मैंने फुर्ती से अपना हाथ पीछे खींच लिया। मेंढक भी उछल कर पानी में जा कूदा। इस तरह दोनों ही बच गए। मेंढकों को पकडऩे का वह हमारा आखिरी दिन था। उन्हीं दिनों सालोदा में रेल लाइन के किनारे कैलादेवी का मंदिर बनना प्रारंभ हुआ था। स्कूल से किसी दिन जल्दी छुट्टी हो जाने पर हम लोग लाल-पीले बेरों की झाडिय़ों से बेरों को तोड़ते खाते या जेबों में भरते हुए उस निर्माणाधीन मंदिर तक आ जाते थे। कंटीली झाडिय़ों से बेरों को तोडऩे के प्रयास में हमारी अंगुलियों पर कांटे चुभ जाया करते और हम उन जख्मी अंगुलियों को मुंह में डालकर चूसने लगते थे। मंदिर निर्माण के बाद वहां प्रतिवर्ष वहां मेला भरने लगा था। एक बार उस मेले में जाने के फेर में हम एक ट्रक में चालक के लाख मना करने के बावजूद यह सोचकर चढ गए कि मेला स्थल पर या तो वह रोक देगा अन्यथा भीड़ की वजह से उसे रूकना ही होगा लेकिन वहां वह ट्रक रूका नहीं। सड़क पर कोई खास भीड़ भी थी नहीं अत: वह चलता रहा। तब हमने चलते ट्रक से सड़क पर छलांग लगाई। किसी का घुटना छिला तो किसी की कोहनी। मेरी कलाई में जबरदस्त झटका लगा। असहनीय दर्द से मेले का आनंद तो काफूर हुआ ही तथा कलाई पर आई सूजन को देख मां-बाप की डांट भी खानी पड़ी।
– प्रभाशंकर उपाध्याय, साहित्यकार