‘यादों के दरीचे’- नवीं कड़ी

सन् 1899 में अर्थात् स्वाधीनता से पूर्व गंगापुर सिटी में पहले प्राइमरी स्कूल की स्थापना हुई थी और इसी स्कूल को 1922 में मिडिल तथा 1945 में सैकेंडरी स्कूल बनाया गया। इसके ग्यारह वर्ष बाद अर्थात् 1956 इसे कला, वाणिज्य और विज्ञान तीनों संकायों के लिए हॉयर सैकेंडरी में क्रमोन्नत किया गया था। 1973-74 के आंकड़े बताते हैं कि उस समय इस विद्यालय में 1377 विद्यार्थी तथा 54 अध्यापक थे। इसके साथ यह तथ्य भी रोचक है कि जिले का सबसे पुराना हायर सैकेंडरी स्कूल एक वर्ष पूर्व 1955 करौली में क्रमोन्नत हुआ था तथा पांच वर्ष बाद (1960) में सवाईमाधोपुर का सैकेंडरी स्कूल क्रमोन्नत हुआ यानि हमारे जिले में 1960 तक मात्र तीन हायर सैकेंडरी स्कूल थे। आगे के अध्ययन के लिए अधिकतर छात्र प्राय: आगरा जाया करते थे। हमारे स्तंभ लेखक ने बताया कि उनके पिताजी ने भी आगरा से ही इंटर उत्तीर्ण किया था। जिला गजेटियर के अनुसार 1961 में गंगापुर सिटी में 185 पुरुष तथा तीन महिलाएं मैट्रिक पास थीं। उस समय समूचे जिले में मात्र 17 पुरुष और 18 महिलाएं डिग्रीधारी थीं। यदि इन आंकड़ों की माने तो उस समय स्त्रियां, पुरुषों से अधिक डिग्रीधारी थीं। उन दिनों दसवीं बोर्ड की परीक्षा का बड़ा हौवा था। प्रथम श्रेणी आ जाना बहुत बड़ी बात मानी जाती थी। परीक्षा परिणामों में प्रथम श्रेणी का कॉलम सबसे कम जगह घेरता था और सबसे बड़ा कॉलम होता था, द्वितीय श्रेणी का। लिहाजा, इस किश्त के साथ हम लेखक का एक चित्र प्रकाशित कर रहे हैं, जो उनका पहला पासपोर्ट आकार का चित्र है। यह उन्होंने दसवीं की परीक्षा के फार्म को भरने हेतु खिंचवाया था। इसके साथ ही लेखक के डिसेक्शन बॉक्स का चित्र भी दे रहे हैं। अब, विद्यालयों में जन्तुओं की चीर फाड़ पर पाबंदी है। बहरहाल, पेश हैं नवीं कड़ी…

प्रभाशंकर उपाध्याय, साहित्यकार

दिन बीतते जा रहे थे और मेरे मन में भी जासूस बनने की हौंस पलने लगी। अपराधियों का पीछा करते हुए कर्नल विनोद के स्थान पर मैं अपनी कल्पना करने लगता था। किसी सुराग के मिलते ही कर्नल की तरह होठों को गोल करके सीटी बजाने लगा था। इस तरह इब्ने सफ़ी के उपन्यासों के प्रमुख पात्र विनोद और हमीद मेरे हीरो हो गए। और इसी तरह ओमप्रकाश शर्मा के उपन्यासों का पात्र चक्रम (एक प्राइवेट जासूस) भी मेरे आकर्षण का केन्द्र था। शनै: शनै: उपन्यासों को पढऩे का जुनून इस कदर बढ़ा कि मैं उन्हें किराए पर लाकर पढऩे लगा था। कर्नल रंजीत, रीमा भादुड़ी को पढ़ा। गुलशन नंदा, प्रेम वाजपेयी तथा रानू के सामाजिक और भावुकता भरे उपन्यास पढ़ डाले। तत्पश्चात् नगर पालिका द्वारा संचालित वाचनालय में जाने लगा। तब, तोताराम जी लाइब्रेरियन की कुर्सी पर बैठते थे। वाचनालय से इश्यू करवाकर पहला उपन्यास जो पढ़ा वह था यज्ञदत्त शर्मा का ‘संक्राति काल’। उसके बाद तो साहित्यिक और ऐतिहासिक उपन्यासों की भी लत लग गयी। शरतचंद्र, बंकिमचंद्र, विमल मित्र और प्रेमचंद, रेणु, अश्क, कृश्नचंदर को पढ़ा। अनेक कहानी संग्रह भी पढ़े। गंगाराम पटेल और बुलाखी नाई के रोचक किस्से पढ़े। मतलब यह कि अगले दो वर्षों तक उस वाचनालय की आधे से अधिक पुस्तकें मैंने चाट लीं थीं। घर में एक लोहे का एक बहुत बड़ा बक्सा था, उसमें पिताजी अपना रेलवे का सर्विस रिकॉर्ड और अन्य महत्वपूर्ण कागज रखते थे। हम उसे छूते नहीं थे पर एक बार दीपावली पर उस बक्से की सफाई होते समय टैगोर की गीतांजलि तथा प्रसाद की कामायनी पर मेरी निगाह पड़ गयी। उन्हें भी पढ़ा पर उस समय वह अधिक रूचिकर नहीं लगा। उसी दौर में एक मित्र के घर देवकी नंदन खत्री का भूतनाथ तथा चंद्रकांता संतति नजऱ आया। दोस्त ने मेरे आग्रहस्वरूप उन्हें एक -एक करके मुझे पढऩे के लिए उपलब्ध करवाया। एयारी के उस तिलस्मी जगत को पढ़कर मैं अभिभूत हो गया। लिहाजा, हिकारत से देखे जाने वाले उस फुटपाथी साहित्य से मेरी शब्द संपदा के साथ कल्पना शक्ति का पर्याप्त विकास भी हुआ और उसी ने मुझे हिन्दी साहित्य की ओर जाने का मार्ग प्रशस्त किया और उसका फायदा मुझे आगामी हिन्दी विषय की परीक्षा में भी मिला। मेरे दादाजी के पास लल्लू लाल जी रचित ‘प्रेम सागरÓ नाम का ग्रंथ भी था। मैंने उसे भी पढ़ डाला। बद्रीनाथजी के मंदिर में रामसनेही बाबा अक्सर कथा वाचन किया करते थे। अगर वह गर्मियों की छुट्टियों में होती तो मैं वह मौका भी नहीं चूकता और जब घोर गर्मियों की दोपहर में प्राय: घर से बाहर नहीं निकलते थे तथा कैरम-गोटी, चंगा-पै, सांप-सीढ़ी या गुटका आदि खेल खेलकर दोपहरी गुजारते थे तो मैं मंदिर में कथा सुनने निकल पड़ता था और जब कथा नहीं होती तो मेरे हाथ में या तो कोई किताब होती या शब्दकोश अथवा एटलस होता। मैं छोटे भाई बहनों से एटलस में से नगरों-द्वीपों के नाम बोलकर उन्हें ढूंढने को कहता या शब्दकोश में से कोई शब्द बोलकर उनके अर्थ पूछता था। इसी तरह अंत्याक्षरी भी मुझे प्रियकर थी। यदा कदा बच्चों को बाल कहानियां सुनाया करता था। और अंतत: वह दिन भी आ गया जब दसवीं बोर्ड की परीक्षाएं सिर पर आ गईं। स्कूल में जितना पढ़ाया गया था तथा घर पर बलबीर के संग जितना अध्ययन किया और परीक्षा की अवधि में जितना कोर्स कवर हो सका, उसके आधार पर सारी परीक्षाएं दीं। फिर आया प्रायोगिक परीक्षा का दौर। भौतिक विज्ञान का एक ध्वनि प्रयोग तो इतना अच्छा हुआ कि उसकी गूंज समूचे लैब में गूंज उठी। उस आवाज को सुनकर बाहर से आए परीक्षक स्वत: ही मेरे पास खिंचे चले आए। वे हमारे भौतिकी के अध्यापक से बोले, ‘ऐसी साउंड तो मैंने आज तक इस प्रयोग के दौरान नहीं सुनी। इस लड़के ने इस एपरेटस को कमाल का सेट किया है।’ नतीजा यह रहा कि भौतिक विज्ञान के उस प्रेक्टीकल में मुझे 90 प्रतिशत अंक हासिल हुए थे। लेकिन रसायन शास्त्र की प्रायोगिक परीक्षा में एक गड़बड़ी हो गयी। दरअसल, उन दिनों कुछ प्रयोगों में प्लेटिनम वॉयर का उपयोग होता था जिसे विद्यार्थियों को खरीदना होता था। मैं अपना वॉयर घर भूल आया था। यूं तो प्रत्येक छात्र को अलग-अलग पदार्थ दिए जाते थे और आवश्यक नहीं था कि सबमें प्लेटीनम वॉयर का उपयोग हो। मैं प्रार्थना कर रहा था कि मुझे कोई ऐसी वस्तु नहीं मिले जिसमें उस वॉयर का उपयोग हो किन्तु मेरी बदकिस्मती तो देखिए मुझे वही प्रयोग मिला जिसमें प्लेटीनम वॉयर का उपयोग होता था। मैंने अपने अध्यापक को बताया कि मेरा वॉयर घर रह गया है, अत: कृपया, मुझे कोई दूसरा पदार्थ जांचने के लिए दे दें। अघ्यापक ने मुझे घूरा, ‘वेरी केयरलेस यू आर। किसी की साइकिल ले जाओ और पंद्रह मिनट में उसे लेकर आओ।’ मुझे साइकिल चलाना नहीं आता था। यदि वह बात टीचर को बताता तो फिर फटकार मिलती अत: लैब से बाहर आया और घर की दिशा में दौड़ लगा दी। कोर्ट परिसर जहां आजकल मिनी सचिवालय है, उसके पीछे की दीवार उन दिनों अधिक ऊंची नहीं थी। सुबह का वक्त था, परिसर खाली पड़ा था। मैंने दौड़ते हुए उसी शॉर्टकट को अपनाया। उस दीवार को फांद कर अनाज मंडी में घुसा और सीधे दौड़ा, गुड़ गली की ओर। उस गली के ठीक सामने अर्थात् नया बाजार रोड़ को पार कर हमारा घर है। प्लेटिनम वॉयर लिया और फिर उसी रास्ते से दौड़ा। हांफते हुए लैब में पहुंचा तथा अपने प्रयोग में जुटा। बस, उसी दिन मैंने सोच लिया था कि इस बार गर्मियों की छुट्टियों में साइकिल चलाना अवश्य सीखना है और उसे मैंने सीखा। – प्रभाशंकर उपाध्याय, साहित्यकार