सर्व विदित है कि ताजमहल अपने अनूठे स्थापत्य से विश्व के सात आश्चर्यों में से एक है किन्तु इस आश्चर्य को अपने घर की चारपाई से लेटे हुए देखना भी तो एक आश्चर्य ही है। हमारे स्तंभ लेखक बताते हैं कि उन्होंने इसे प्रत्यक्षत: अनुभूत किया है। ताज की नगरी आगरा में हमारे लेखक को दो बार रहने का अवसर मिला था। एक जब वे तीसरी कक्षा में पढते थे। उपाध्यायजी उन दिनों को याद करते हुए हमें बताते हैं कि तब वे यमुना के किनारे रहते थे और बरसात के दिनों में उनके स्कूल में यमुनाजी का पानी भर जाता था। दूसरी बार उन्हें आगरा रहने का अवसर युवावस्था में मिला जब वे बेहद बीमार थे और पिताजी के रेलवे के बंगले में कुछ दिन रहे। वहां से यमुना का पूर्वी किनारा अधिक दूर नहीं था। उन दिनों खेतों के बीच लहलहाती फसल के ऊपर से ताजमहल स्पष्टत: दृष्टिगत् होता था और उसी पूर्वी किनारे से दिखाई देते ताजमहल की एक छवि हम यहां विषय संगत समझकर प्रकाशित कर रहे हैं। तो पढिए यादों के दरीचे की सोलहवीं कड़ी, ताज दर्शन के संग:.
पिछली कड़ी में आपने पढा था कि 1973 के भारत-पाक युद्ध के दौरान एक व्यापारी की केरोसिन की जमा खोरी के संदेह में हमने कुछ ड्रमों को खुलवाया। व्यापारी ने ड्रम खोला तो ताराचंद ने कहा कि यह तो मिट्टी का तेल है। लेकिन दुकानदार अपनी इस बात पर अडिग था कि वह टरपेनटाइन ही है। अब, राह चलते कुछ लोग भी वहां जमा हो चुके थे। मैं बोला, ‘पास में चाय की एक दुकान दिख रही है, वहां से स्टोव मंगा लेते हैं और उसमें इसे भर कर टेस्ट करते हैं।’
लोगों को मेरी बात जंच गयी। चाय की दुकान से स्टोव लाकर उसमें तेल डालकर, जलाया तो वह भर्र-भर्र करता हुआ जलने लगा। अब, यह बात साफ थी कि वह घासलेट ही था। शायद वे तीन या चार ड्रम थे, उन्हें हम लोगों ने अपनी निगहबानी में जनता में बिकवाया। दूसरे दिन नवज्योति में सचित्र समाचार था कि एक व्यापारी के गोदाम में स्टॉक किए गए केरोसिन को कॉलेज के कुछ विद्यार्थियों ने जब्त कर जनता में वितरित करवाया। ऐसी सतर्क बुद्धि वाला किन्तु किंचित शरारती प्रवृति का वह लड़का आगे चलकर राजस्थान पुलिस में इंसपेक्टर नियुक्त हुआ और बाद में प्रशासनिक अधिकारी बना। खैर, फिरौती वाले उस झूठे पत्र की पोल खुल चुकी थी और मैंने बीएससी अंतिम वर्ष की परीक्षाएं अपूर्ण तैयारी के साथ अजमेर के केन्द्र से ही दीं। परीक्षा समाप्त होते ही पिताजी ने मुझे फौरन गंगापुर आ जाने का आदेश दिया। मेरी स्नातक की परीक्षा में डाकू प्रकरण से पूर्व एक व्यवधान और आया था। अब, उसे भी लिखे देता हूं। एक सुबह जागा तो मुझे बुखार महसूस हुआ। डॉक्टर ने मलेरिया समझकर इलाज किया लेकिन कुछ दिनों के बाद वह रोग इतना बिगड़ गया कि अजमेर के रेलवे हॉस्पिटल में डेढ महीने तक भर्ती रहने के बावजूद काबू में नहीं आ सका। मैंने अपनी बीमारी के बारे में किसी को कुछ बताया नहीं था। उन दिनों डा. मोहनलाल गुप्ता और डा. रामदयाल गुप्ता दोनों भी अजमेर से एमबीबीएस कर रहे थे। दोनों ने मुझे ढूंढ निकाला और प्रतिदिन मेरे समाचार लेने आते थे साथ ही अपने हाथों से एक सेव काटकर खिला जाते थे। मेरा खाना अस्पताल की कैंटीन से ही आता था।
धीरे-धीरे मैं उस वार्ड में सबसे सीनियर मरीज हो गया था क्योंकि दूसरे मरीज आते और दो चार दिन में ठीक हो जाते थे। अनेकानेक जांचों के बाद भी निदान नहीं हो पा रहा था। मेरा मुंह छालों से बुरी तरह भर गया था। जब पिताजी के वेतन में से रेलवे हॉस्पिटल का व्यय कटा तो उनका माथा ठनका और पूछताछ करने पर पता चला कि मैं अजमेर के अस्पताल में भर्ती हूं। उस समय, पिताजी की पोस्टिंग आगरा के कैरिज एंड वक्र्स में थी। उन्होंने आगरा से अपने अधीनस्थ एक कर्मचारी को अजमेर भेजा ताकि वह मुझे आगरा ले आए। मुझे अजमेर के अस्पताल से डिस्चार्ज करवा कर वह व्यक्ति मुझे आगरा ले आया। पिताजी वहां अकेले ही रहते थे। माताजी और अन्य भाई बहिन गंगापुर में ही रहते थे। आगरा के ईस्ट बैंक अर्थात् यमुना नदी के पूर्वी किनारे पर रेलवे का एक बड़ा बंगला पिताजी को मिला हुआ था। रेलवे का डॉक्टर वहां आकर मुझे देख गया था। यह अद्भुत संयोग था कि बंगले के दरवाजे के ठीक सामने से ताजमहल नजऱ आता था। मुझे अपनी चारपाई पर लेटे-लेटे वह विश्व विख्यात इमारत साफ दिखाई देती थी। ऐसा लगता था मानों उसे बंगले के दरवाजे के बीचों-बीच उसे फ्रेम कर दिया हो। ताज को देखते हुए मैं सोचता था कि बीमारी की हालत में ताजमहल को या तो शाहजहां ने देखा या मैं देख रहा हूं। दो सप्ताह निकले लेकिन बुखार ने मेरा पिंड नहीं छोड़ा। हल्की हल्की हरारत हर समय बनी रहती थी। कमजोरी भी बहुत आ गयी थी। एक दिन पिताजी लंच के समय घर आए तो मैं बंगले से नदारद था। बंगले पर जो आदमी रहता था उन्होंने उससे भी पूछा तो उसने भी अनभिज्ञता जाहिर की। पिताजी उस पर बड़े क्रोधित हुए कि ध्यान क्यों नहीं रखा? खैर, पिताजी ने मुझे आसपास ढुंढवाया किन्तु मेरा कहीं अता पता नहीं था। खोजबीन की इस आपाधापी में एक घंटा बीत गया। मारे चिंता के पिताश्री का बुरा हाल था कि मैं लहराता-डगमगाता सामने के खेतों के मध्य से आता दिखा। पिताजी ने गुस्से में पूछा, ‘कहां चला गया था?’ मैंने कहा, ‘यमुनाजी तक गया था, पूर्वी किनारे से ताजमहल को देखने।’ पिताजी बोले, ‘एक तो तू बीमार है। दूसरे कमजोरी भी है और क्या तू जानता भी है कि यमुनाजी के इस किनारे पर कैसे लोग रहते हैं? वे आते जातों को लूट ही लेते हैं साथ ही पहने हुए कपड़ों तक को उतरवा लेते हैं।’ मैं मुस्कराया, ‘मुझे तो किसी ने कुछ नहीं कहा।’ उसी दिन ड्यूटी ऑफ होने के पश्चात् पिताश्री मुझे गंगापुर ले आए। वे मुझे जगदम्बा मेडीकल स्टोर पर ले गए। उस समय वह खारी बाजार में था। वहां, वैद्य गोविन्द सहायजी बैठा करते थे। वैद्यजी ने मुझे देखते ही कहा, ‘अरे यह लड़का! यह इतना काला कैसे हो गया? जैसे कोयले की खदान से निकाला हो?’पिताजी ने कहा कि यह दो महीने से बीमार है। अब आप ही इसका इलाज कीजिए। वैद्यजी ने पांच दिन तक मुझे इंजेक्शन लगाए साथ ही एक टॉनिक भी पीने के लिए दिया। मेरे स्वास्थ्य में सुधार दिखाई देने लगा। वैद्यजी के हाथ में कुछ ऐसी शिफ़ा थी कि अजमेर और आगरा के बड़े डॉक्टर और विशेषज्ञ जिस रोग को ठीक न कर सके उसका इलाज वैद्यजी ने महज पांच दिनों में कर दिया था। क्रमश:…-– प्रभाशंकर उपाध्याय, साहित्यकार