‘यादों के दरीचे’- पांचवीं कड़ी

गतांक से…मार्च का महीना वित्तिय वर्ष का आखिरी माह होता है अत: हम भी यादों के दरीचे की प्रस्तावना में इस बार वित की ही बात करेंगे। यहां हम उन लघु मुद्राओं के चित्र प्रकाशित कर रहे हैं, जो अंग्रेजी शासन काल से हमारे देश की आजादी के बाद तक चालू रहीं। 1957 में भारत सरकार ने दसमलव पद्यति पर आधारित नया पैसा लागू किया था। एक जून 1964 को पैसा शब्द के आगे से नया शब्द हटा दिया गया। यहां उन सिक्कों के चित्र भी दिए जा रहे हैं। भारत में उससे पूर्व लघु मुद्रा की एक और पद्यति लागू थी, कौड़ी, दमड़ी, धेला, पाई और पैसा। उसका क्रम इस तरह था-तीन फूटी कौडिय़ों का मूल्य एक साबुत कौड़ी के बराबर। दस साबुत कौड़ी का एक दमड़ी। दो दमड़ी का एक धेला या डेढ पाई का एक धेला। तीन पाई का एक पैसा। चार पैसे का एक आना तथा सोलह आने का एक रुपया होता था। जब किसी के किसी के पास 128 धेला हो जाते तो उसे 64 पैसा यानी सोलह आना अथवा एक रुपया के बराबर माना जाता था। दुअन्नी, चवन्नी और अठन्नी भी चला करती थीं। यहां प्रकाशित 1936 के क्वाटर आना (चौथाई आना) के दुर्लभ चित्र को उपाध्याय परिवार के सिक्का शौकीन हनुमंत उपाध्याय के संग्रह से दे रहे हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि वर्ष 1964 तक हिन्दुस्तान में कांसा, निकल-तांबा तथा अल्युमीनियम-कांसा जैसी मिश्र धातुओं के सिक्के प्रचलित थे। 1964 में ही पहली बार अल्युमीनियम का तीन पैसे का सिक्का प्रचलन में आया। तत्पश्चात एक, दो, पांच तथा दस पैसे के सिक्के आए। 1968 के बीस पैसे के निकल-ब्रॉस वाले सिक्के को भी 1982 में अल्युमीनियम में ढाल दिया गया था। तो, अब वित्त की दुनिया से बाहर आकर प्रभाशंकर उपाध्याय के यादों के दरीचे की पांचवीं किश्त पर आ जाते हैं…

गंगापुर सिटी का महेश टाकीज पहले डीजल के जेनरेटर से चला करता था। नगर का विद्युतीकरण होने के बाद भी बिजली जब गुल हो जाया करती थी, तब दर्शकों का हुजूम सिनेमा हॉल के पास बने जेनरेटर रूम के सामने जा जुड़ता था तथा जेनरेटर के चलते ही दर्शक हो…हो…करते हॉल की ओर दौड़ लगा जाते थे।
अब, सिनेमायी दुनिया से लौटकर, फिर रेलवे कॉलोनी का रूख करते हैं। हमारे क्वाटर्स का एक छोर नाले पर खत्म होता था तो दूसरा छोर माल गोदाम वाली दिशा में समाप्त होता था। उसके बाद खेत ही खेत थे। पास में गंदे पानी का एक बड़ा सा गड्ढ़ा था। उस गड्ढे से पहले एक खुला हुआ स्थान था। जहां पर होली जलाई जाती थी। उस होली में इतनी मोटी लकडिय़ां डाली जाती थीं कि दो-तीन दिन तक वे सुलगती ही रहतीं। उन दिनों क्वाटर के लोग अपने लकड़ी के फर्नीचरों को घर के अंदर रख दिया करते थे। यार्ड में उन दिनों भैंसों वाली मालगाडिय़ां भी खड़ी रहती थीं। उनकी रखवाली के लिए साथ में चल रहे, दूधिए कॉलोनी और महूंकला के निवासियों को सस्ते दामों में दूध बेच दिया करते थे। वह दूध प्राय: खालिस ही हुआ करता था अत: उसकी मांग सदा रहती थी। जब, कभी रेलवे कॉलोनी के उस छोर पर हमारा खेलने का कार्यक्रम हुआ करता और अगर लाइनों पर हमें दूधवाली मालगाड़ी खड़ी दिखाई दे जाती तो हम उल्टे पांव दौड़ पड़ते थे। अपने घरों पर जाकर यह सूचना दे देते कि यार्ड में दूधवाली मालगाड़ी खड़ी है। उस तरफ जाने का एक फायदा हमें और मिला करता था कि वहां हमें रबर की रिंग (जिन्हें हम गिर्रियां कहते थे) भी पड़ी मिल जाया करती थीं। दरअसलए वे वेक्यूम पाइप को जोडऩे में प्रयुक्त होती थीं तथा घिसने के बाद वे अनुपयोगी हो जाया करती थीं किन्तु हमारे लिए उनका उपयोग ‘मारधड़ी ‘ के खेल के लिए हुआ करता था। सामने वाले लड़के की पीठ का निशाना साधकर, उन गिर्रियों को मारा जाता था तथा सामने वाला उससे बचने का प्रयत्न करता था। इसके अलावा उन दिनों बच्चों के आउटडोर खेलों में आंख मिचौली, लुका छिपी या आइस-पाइस, विष अमृत, चोर सिपाही, किल किल कांटे, कोड़ा जमालशाही पीछे देखे मार खायी, बोल मेरी मछली, खो खो, रूमाल झपट्टा, कबड्डी, सितोलिया, गिल्ली डंडा, लंगड़ी दौड़, दो बच्चों की टांग एक दूसरे से बांध कर दौडऩे की प्रतियोगिता और पतंगबाजी आदि हुआ करते थे। इनडोर गेम्स में गुटका खेलना लड़कियों में विशेष प्रिय था। इसके अलावा चंगा पै, सांप सीढी, शतरंज, कैरम, चौपड़ पासा, आटा-पाटा दही चटाका आदि भी प्रिय खेल थे। इनमें से अनेक खेल तो आज भी खेले जाते हैं। और पतंगबाजी, वह तो अब भी बच्चों में और वयस्कों में समान रूप से लोकप्रिय है। पतंगबाजी से अधिक आनंद तो पतंगें लूटने में था और है। बचपन में मेरा एक दांत पतंग लूटने के दौरान शहीद हुआ, तो दूसरा किशोरावस्था में क्रिकेट की बॉल को कैच करने की कोशिश में बलि चढ गया। तब, बाल शरारतें भी क्या खूब हुआ करती थीं। बच्चे चलते रास्ते किसी लंगड़े व्यक्ति को यूं ही छेड़ देते थे, लंगड़दीन, बजावे बीन। घड़ी में बज गए, पौने तीन। मोटे आदमी को कहते, मोटे आलू पिलपिले…बहु को लेकर गिर पड़े। बाबूलाल नाम के व्यक्ति को यों चिढाते, बाबूलाल चने की दाल, रह गयी टोपी उड़ गए बाल।
बच्चों में नानी के घर जाने का भी विशेष क्र्रेज था। दरअसलए नानी के घर जाना बच्चों के किसी पर्व से कम न था। नानी का दुलार, नानी की कहानियां तथा नानी के यहां शरारत करने की भरपूर आजादी बच्चों के लिए आकर्षण बिन्दु होती थी। अत: जो बच्चे नहीं जा पाते थे, वे जाने वाले बच्चे को यूं चिढाते थे, नंग धड़ंगो सोटा सो, नानी के जाए बिलौटा सो। मेरी मां बताती हैं कि मैं भी नानी के घर जाने और दाल-डडूल अर्थात् दाल-लड्डू खाने की जिद किया करता था। किसी कारण वश स्कूलों में अवकाश हो जाने पर बच्चे एक गीत और गाया करते थे, आज की छुट्टी कल इतवार, परसों मरेंगे थानेदार। हो सकता है कभी किसी समय किसी इलाके के थानेदार की आकस्मिक मृत्यु पर अवकाश घोषित हुआ हो? लिहाजा, लड़कों ने उस पर तुकबंदी ही कर डाली थी।
– प्रभाशंकर उपाध्याय, साहित्यकार