‘यादों के दरीचे’ – छठी कड़ी

यादों के दरीचे की पिछली किश्त में आप इस स्तंभ के लेखक की बचपन की दुनिया से रूबरू हुए थे। अब हमारे लेखक महोदय किशोरावस्था में पदार्पण कर रहे हैं। हम यहां उनके उन मित्रों के पुराने छाया चित्र प्रकाशित कर रहे हैं, जो यह बयां कर रहे हैं कि ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे…। ये सभी मित्र विभिन्न राजकीय सेवाओं से निवृत हो चुके हैं और इन पांचों की दोस्ती अब तक बरकरार है। चित्रों में बाएं से डा. मोहनलाल गुप्ता (शिशु रोग विशेषज्ञ), डा. रामदयाल गुप्ता (चिकित्सक इंडियन पोस्टल सेवा), लेखक प्रभाशंकर उपाध्याय (बैंक अधिकारी), गिर्राज प्रसाद गुप्ता (कार्यालय सहायक, राज. सरकार), गिरधारी लाल गुप्ता (विशेष सहायक, एस.बी.बी.जे.)। लिहाजा प्रस्तुत है, छठी कड़ी-

जब मैं कक्षा दो में अध्ययन कर रहा था तो पिताजी का तबादला भरतपुर हो गया और उसके बाद आगरा हुआ। कक्षा पांच तक मेरा अघ्ययन भरतपुर तथा आगरा में हुआ और उसके बाद वापस गंगापुर आ गए। इस बार पिताजी ने क्वाटर नहीं लिया था तथा हम नया बाजार स्थित अपने पुश्तैनी मकान में आकर रहे। उन्हीं दिनों पिताजी ने मकान में बिजली और नल का कनेक्शन भी करवाया। उससे पहले अनाज मंडी स्थित कुओं से पानी लाकर हमारा काम चलता था। मंडी के मध्य में बने कुएं का जल मीठा था तथा मंडी के गुड़ गली वाले दरवाजे के पास स्थित कुएं का पानी खारा था, इसे पंडाजी का कुआं कहा जाता था। बिजली आने के बाद हमारे घर में पहला टेबिल फैन आया, रैलिस इंडिया का। उससे पहले दादाजी के कमरे में छत पर लटका हुआ एक झालर वाला पंखा था, जिसे डोर की मदद से खींचा जाता था। हम पहली मंजिल में रहते थे और दादा-दादी नीचे के कमरे में। हमारे पास ऊपर के दो कमरे थे। एक आगे और दूसरा उसके पीछे। पीछे के कमरे में हम सात भाई बहन फर्श पर सोया करते थे। सर्दियों में भी पिताजी सुबह-सुबह सबको जगा देते थे। वे हमारे ऊपर से एक एक कर रजाई खींचते जाते थे और गाते थे, ‘जो सोवेगा सो खोवेगा…जो जागेगा सो पावेगा। ‘ और हम एक दूसरे की रजाई में घुसते चले जाते थे। अंतत:, अंतिम रजाई का नम्बर आने पर झक मारकर उठ खड़े होते। तब पिताश्री गाते, ‘चाय पियोजी गरम-गरम और बिस्कुट खाओ नरम नरम। ‘ हम आगे के कमरे में आकर अंगीठी के पास आ बैठते। वहां माताजी ने भगौने में चाय चढा रखी होती थी। अंगीठी की आंच की तपन को महसूस करते हुए, चाय में उबाल आने का इंतजार बेकरारी से करते रहते। छठी कक्षा में मेरा दाखिला गंगापुर के मिडिल स्कूल सं. एक (अब ब्लॉक डी) में हुआ। सामने स्थित कैलाश टाकीज का निर्माण तब नहीं हुआ था।
उन दिनों गाल पर झन्नाटेदार झापड़ पडऩा और स्कूल में मुर्गा बनना आम बात थी। आधा आधा घंटे तक हम मुर्गा बना दिए जाते थे। अलबत्ता, लड़कियां जरूर मुर्गी बनने से बच जाती थीं। गंगापुर के मिडिल स्कूल सं. एक के अध्यापक मदनलाल शर्मा को सब ‘कोक साहब ‘ के नाम से जानते थे। खुद हेड मास्टर चपरासी से कहते, ‘जाओ, कोक साहब को बुला लाओ। ‘ कोक साहब भी अनूठी शख्सियत थे। जहां तक मुझे स्मरण है, उनकी छवि कुछ ऐसी थी- क्लीन शेव्ड, हाथ में थामा हुआ एक रूल और ‘लड़के कोक बनेगा ‘ कहने की विशेष भंगिमा। कोक साहब का यह उपनाम इतना लोकप्रिय था कि बहुत बरसों बाद उनकी बेटी बामनवास में एक दिन मेरे बैंक आयी थी तो उसने मुझसे प्रश्न किया था कि क्या मैंने उसे पहचाना? मेरे नहीं कहने पर बोली, ‘भाई साहब! मैं कोक साहब की लड़की हूं। मैं, स्कूल में आपसे एक क्लास पीछे थी। ‘ बहरहाल, अध्यापकों द्वारा विद्यार्थियों को सजा देने के दो प्रचलित तरीके और थे, हथेलियों की पिटाई
बेंत से करना तथा अंगुलियों में पेंसिल या कलम फंसा कर दबा देना। हमारे एक अध्यापक तो सिर के बाल सामने से खींच देते थे। इसलिए हमारा एक सहपाठी तो अपने बाल इतने छोटे कटवा लाया कि वे मास्टरजी की पकड़ में न आ सकें। हमारे स्कूल का खेल का मैदान भोमियाजी के बाग के सामने था। वहां हमने फुटबाल, कब्बडी और हॉकी खेली। कभी-कभार गिल्ली-डंडा भी खेला था। भोमियाजी के बाग के पेड़ों पर हम अक्सर चढ़ जाया करते थे। एक पेड़ की टहनी तो जमीन की ओर इतनी झुकी हुई थी कि उस पर बच्चे अक्सर दौड़कर चढ जाते और दौड़ते हुए उतर भी जाते थे। विद्यालय के अंतराल के समय में हम लोग चौकवाले बालाजी के सामने स्थित गोपीनाथजी के मंदिर में भी चले जाया करते थे। वहां एक सुरंग थी और उस सुरंग की सीढियों पर बैठ कर हम पढाई किया करते थे। सीढियों से थोड़ा आगे एक शिवलिंग स्थापित था। उसके बारे में सुना जाता था कि सुरंग में प्रवेश को बाधित करने के लिए उसे वहां स्थापित किया गया था। मंदिर के प्रांगण और सुरंग के मुहाने पर, बड़ा ही स्वच्छ और शांतिदायक वातावरण था। सुरंग होने के बावजूद वहां किसी प्रकार के भय की अनुभूति नहीं होती थी। अभी, पिछले दिनों जब मैं गोपीनाथजी के मंदिर की ओर गया तो मंदिर के मुख्य द्वार पर ही दुर्गंध का अहसास हुआ। देखा कि पास में ढेर सारा कूड़ा सडांध मार रहा है। वाकई, कितना बदल गया इंसान? उसने मंदिरों-मस्जिदों को भी नहीं बख्शा।
मिडिल स्कूल के दिनों में मेरे सहपाठी थे, गिर्राज प्रसाद गुप्ता, गिरधारी लाल गुप्ता, रमेशचंद गुप्ता ये तीनों अब अपनी राजकीय सेवाओं से मेरी ही भांति सेवानिवृत हैं और आज भी मेरे अनन्य मित्र हैं। गोपीनाथ शर्मा मुझसे एक कक्षा आगे पढ़ते थे। वे मेरे फुफेरे भ्राता हैं। उनकी रूचि प्रारंभ से ही सांस्कृतिक गतिविधियों में थी। स्कूल के दिनों में वे एकाभिनय किया करते थे। बाद में उनकी वह रूचि परिष्कृत होकर कवि के तौर पर उभरी तथा वे गोपीनाथ उपेक्षित के नाम से काव्य सृजन करने लगे और अब गोपीनाथ चर्चित के नाम से हास्य कवि के तौर पर सुस्थापित हैं। अनेक दफा आकाशवाणी और टीवी चैनल्स में शिरकत कर चुके हैं। आठवीं कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद मैंने साथ मेरे दो सहपाठियों ने जीव विज्ञान विषय लिया था। नवीं कक्षा में ही दो अन्य सहपाठियों से भी मेरी घनिष्ठता हुई, मोहनलाल गुप्ता तथा रामदयाल डंगायच। बाद में ये दोनों एलोपैथी चिकित्सक बने। डा. मोहनलाल गुप्ता गंगापुर के नामचीन शिशु रोग विशेषज्ञ हैं, वे राज. चिकित्सा सेवा से पीएमओ के पद से और डा. रामदयाल गुप्ता भरतीय डाक विभाग से सेवा निवृत हुए हैं। नवीं कक्षा के जीव विज्ञान विषय में हम पांच लड़के थे जो आठवीं में फस्र्ट डिविजन लाए थे। अत: हमारे कक्षाध्यापक हमें आगे की बैंचों पर बिठाते थे और ज्यादा सवाल भी हमसे ही पूछे जाते थे। पूछे गए किसी सवाल का उत्तर नहीं आने पर अध्यापक तो यह भी कहते कि आठवीं तक तो फस्र्ट डिवीजन ले आए, अब दसवीं में आएगी नानी याद।
– प्रभाशंकर उपाध्याय, साहित्यकार