‘यादों के दरीचे’- तीसरी कड़ी

गतांक से… यादों के दरीचे की इस किश्त में हम रेलवे कॉलोनी में स्थित रोमन कैथोलिक चर्च का चित्र प्रस्तुत कर रहे हैं। यह चित्र लगभग बीस वर्ष पूर्व इस स्तंभ के लेखक द्वारा खींचा गया था। इसकी स्थापना 24 जुलाई 1924 को हुई थी अर्थात् सात साल बाद यह सौ बरस का हो जाएगा। गगनचुंबी चोटी के साथ, इसका स्थापत्य देखते ही बनता है। भारत के प्राचीन विख्यात चर्च गोवा, मुंबई और दिल्ली में हैं लेकिन हमारा यह चर्च अपनी भव्यता के बावजूद किसी भी चर्चा से अछूता ही रहा। हमारी रेलवे कॉलोनी में ही एक दूसरा चर्च प्रोटेस्टेंट (सीएनआई) मत का है। यह अमेरिकन शैली में निर्मित है। इसकी स्थापना भी रोमन कैथोलिक चर्च के छह वर्ष बाद हुई बताते हैं। यहां प्रसंगवश यह उल्लेख भी कर दें कि 2011 के जनसंख्या आंकड़ों के अनुसार गंगापुर में ईसाई धर्मावलम्बियों की संख्या 184 है। लिहाजा, पेश है, यादों के दरीचे की तीसरी कड़ी…

चुनांचे, बरसात के दिनों में तब नाले में पीले रंग का रेत मिश्रित पानी आता था, आज तो गंदगी युक्त मैला-कुचैला आता है। नया बाजार के सामने होता हुआ, वह नहर तक चला जाता था। उस पानी में बच्चे खूब उछल-कूद करते थे। नया बाजार में उन दिनों पक्की सड़क नहीं थी। बाद में पत्थर की सड़क बनी थी।
नाले से रेलवे स्कूल को जाने वाली सड़क के किनारे, डीजल से चलने वाली एक आटा चक्की थी। चक्की की आवाज और उसकी लम्बी सी चिमनी से फक…फक…फुक…फुक…की ध्वनि तथा चिमनी के अंतिम सिरे पर लगा उछलता ढक्कननए मुग्ध कर देने वाला दृश्य उत्पन्न कर देता था। उसी चक्की के पास एक जामुन का ऊंचा वृक्ष था, जिसमें ढेरों जामुन लगे रहते थे। स्कूल जाते वक्त हम कुछ देर रूककर और पत्थर मार कर, उस पेड़ से जामुन झाडऩे का प्रयत्न करते थे। उस लोभ में कभी-कभार स्कूल के लिए भी लेट हो जाया करते थे।
उन्हीं दिनों की कुछ शरारतें और याद आ रही हैं। स्टेशन पर खड़ी मालगाडिय़ों के पहियों के नीचे पत्थर के छोटे-छोटे टुकड़े (गिट्टियां) रख दिया करते थे। जब, मालगाडिय़ां रवाना होती तो वे पत्थर चूर-चूर हो जाते थे। एक बार तो दो या तीन पैसे का अल्यूमीनियम का सिक्का ही रख दिया था। वह चपटा होकर काफी लम्बा हो गया था। पटरियों पर शरारत के एवज में हमने अनेक बार रेलवे के कर्मचारियों से डांट-फटकार भी खायी थी। चूंकि मेरे सहपाठी रेलवे कर्मचारियों के बच्चे ही थे। अत: हमारे घर तक भी शिकायत पहुंच जाया करती थी। उन दिनों अल्यूमीनियम के एक, दो, तीन तथा पांच पैसे वाले सिक्के प्रचलन में आए ही थे। उससे पहले तांबे का एक पैसे का सिक्का तथा इक्कनी, दुअन्नी, चवन्नी और अठन्नी चला करती थीं। पांच तथा दस पैसे के निकल धातु के सिक्के भी प्रचलन में थे। एक पैसे की तो खूब सारी खट्टी-मीठी या अनार दाने की गोलियां आ जाती थीं। उन दिनों हम यह भी सुनते थे कि भंगेडी लोग, तांबे के सिक्के को भांग के साथ घोंट कर अपना नशा गहरा कर लेते थे। लगता है ज्यादातर तांबे के सिक्के भंगेड़ी ही पचा गए। फाउन्टेन पेन का प्रचलन बढऩे के बाद, सिक्कों की धातु का उपयोग उन पेनों की निब बनाने के लिए होने लगा तो अल्यूमीनियम के सिक्के प्रचलन में आए। अल्यूमीनियम के छोटे मूल्य के इन सिक्कों के प्रचलन के आरंभिक दौर में हम बच्चे उन्हें हथेली पर रखकर, जोर से फूंक मारकर उड़ाने का प्रयास करते थे। कौन कितनी दूर तक उड़ा पाता है, कभी-कभी इसकी भी प्रतियोगिता हो जाया करती थी। यह भी रोचक तथ्य है कि दो पैसे के सिक्के की अल्यूमीनियम धातु का मूल्य सन् 2009 में उसके सिक्के से इतना अधिक हो गया था कि उन अप्रचलित सिक्कों को भारतीय रिजर्व बैंक ने बैंकों की करेंसी चेस्ट्स से वापस मंगा लिया था ताकि दुरूपयोग न हो।
उन्हीं दिनों रेलवे स्टेशन के ओवरहेड फुट ब्रिज का निर्माण प्रारंभ हुआ था। उस निर्माणधीन पुल की लोहे की रेलिंग पर मैंने डामर से अपना नाम लिख दिया था और उस नाम को कई साल तक विभोर होकर देखता रहा था।
रेलवे कॉलोनी के क्या सुनहरे दिन थे, वे बड़े-बड़े बंगले आबाद थे। उनके प्रांगण में लगे बागों में बहार थी। सर्दियों में अलावों की चिमनियों से धुआं निकलता रहता था। उन दिनों कॉलोनी में आनंद बाजार (आनंद मेला) लगता था तथा गंगापुर के वाशिंदों का रेलवे कॉलोनी से खासा जुड़ाव भी था, वह इसलिए कि सावन के सोमवार वाले दिन चूली के बाग में खूब चहल-पहल हुआ करती थी। वहां के विशाल वृक्षों पर झूले पड़ जाया करते थे। वर्ष में एक बार वहां मेला भी भरा करता था। कस्बे के एक मात्र पिकनिक स्थल धुंधेश्वर का मार्ग भी रेलवे कॉलोनी से ही गुजरता था।
रेलवे कॉलोनी के वासी भी गंगापुर शहर से जुड़े हुए थे। सामानों की खरीद के लिए, उस वक्त गंगापुर में बड़े स्टोर दो ही थे। देवी स्टोर्स तथा बागोरिया स्टोर्स। रोजमर्रा के काम आने वाली वस्तुएं सामान्यतया देवी स्टोर्स पर उपलब्ध हो जाती थीं। गिटपिट करतीं, एग्लोइंडियन महिलाएं अक्सर उस स्टोर पर नजऱ आ जाया करती थीं। कई तो धूप से बचने को छतरी ताने और फ्रॉकनुमा पोशाक पहने आती थीं। हमारे घर का सामान भी देवी स्टोर्स से ही आता था। इसके अलावा देवी स्टोर्स सामाजिक तथा राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र भी था। स्टोर के स्वामी देवी प्रसाद गोयल (देवी हलवाई), 1939 के प्रजामंडल के आंदोलन में हीरालाल शास्त्री तथा जमनालाल बजाज जैसे स्वतंत्रता सेनानियों के साथ कारावास में रहे थे। उन्होंने आजीवन खादी ही पहनी। उनके दोनों पुत्रों लक्ष्मी चंद और किरोडी लाल गोयल ने भी पिता से प्रेरणा पाकर खादी का कुत्र्ता और पायजामा ही पहना। ये दोनों भाई आमजन में लक्खी-किरोडी के नाम से जाने जाते थे। देवी स्टोर्स के संचालन का सारा दारोमदार इन दोनों भाईयों पर ही था और उनके पिता प्राय: दुकान के आगे की ओर निकली हुई जगह पर एक निश्चित स्थान पर बैठा करते थे। वे इस तरह बाजार से गुजरने वाले लोगों के सीधे सम्पर्क में होते थे। शहर अनेक प्रतिष्ठित जनों की बैठकें और आपसी मुलाकातें भी देवी स्टोर्स पर हो जाया करती थीं। उनका एक पोता नरेंद्र गोयल मिडिल स्कूल में मेरा सहपाठी रहा था।
– प्रभाशंकर उपाध्याय, साहित्यकार