‘मानो या ना मानो’ भाग-4

मित्रों, कोरोना नामक महामारी ने अपना भयावह रूप धारण कर लिया है। जैसे-जैसे यह बीमारी फैल रही है वैसे ही स्वार्थ का वातावरण भी अपने पैर पसारने लगा है। परिणाम यह है कि चहुँ ओर निस्तब्धता के साथ साथ संवेदनहीनता और आपसी संबंधों में महज औपचारिकता मात्र शेष रह गई है। व्यक्ति और व्यक्तित्व पर प्रश्न-चिह्न लगना प्रारम्भ हो चुका है। आज फिर मुझे मन्नाडे जी का गाया हुआ वही गाना याद आ रहा है जो कई बार आदमी दुखी होकर गाया करता है था…
कसमे वादे प्यार वफा सब बातें है बातों का क्या?
कोई किसी का नहीं ये झूठे नाते हैं नातों का क्या?
वर्तमान परिवेश और परिप्रेक्ष्य में यह अक्षरश: सिद्ध हो रहा है।
हर व्यक्ति के मुख पर मलीनता है, परिधान तो स्वच्छ है मगर सैकड़ों सलवटों से युक्त है।
लंबे-लंबे केस और बड़ी दाढ़ी, बिखरे हुये वालों के साथ पैरों में साधारण चप्पल पहने हर व्यक्ति यही गुनगुना रहा है कि –
कोई साथी ना रहा, कोई सहारा ना रहा,
हम किसी के ना रहे, कोई हमारा ना रहा।
शाम को तहमद लगाये, हीर राझा के बहुत सारे राजकुमारों को गलियों में यह गाना गुनगुनाते हुये देखकर में भी गाने लगता हूँ-
ये दुनिया ये महफिल मेरे काम की नहीं…मेरे काम की नहीं.
निसंदेह इस गाने के बोल में कही ना कही यथार्थ छुपा है, मोहम्मद रफी सहाब ने इसमें इतना दर्द डाल दिया है की इसमें छुपी सोच दार्शनिक चिंतन को जन्म देती है।
मित्रों! आज अचानक बदले इस परिवेश ने

  • नूरानी को वीरानी बना दिया है।
  • मौत के भय ने हर इन्सान को सन्यासी बना दिया है।
  • अब क्या कहें? किससे कहें?
    कोई सुनता ही नहीं हमारी बात,
    अब तो चुपचाप रहना बेहतर है क्योंकि कुदरत ने भी हमारे घर को नीरव बना दिया है।
  • अब तो किसी के भी चेहरे पर क्रूरता नजर ही नहीं आ रही,
    हर तरफ मासूमियत झलक रही है, अब तो यह हाल है।
  • तू बेचारा, मैं बेचारा, वह बेचारे, सब बेचारे।
    मित्रों! पूरे विश्व में दो लाख से अधिक मौतें तो हो चुकी है हमारे देश में भी मौत को मंजर हजारों की संख्या को पार कर चुका है, लेकिन मैंने प्रत्यक्ष लोगों को यह कहते हुए सुना है कि यह कंट्रोल तो होगा पर हिंदुस्तान में ज्यादा नहीं एक या दो लाख जरूर इसके शिकार हो जाएंगे।
    कथन करने वाले के लिए एक या दो लाख लोगों की मौत होने की चर्चा सामान्य थी।
    मूक श्रोता की तरह में निस्तब्ध उस भावशून्य और संवेदनहीन व्यक्ति की बात सुनकर हैरान था।
    सुनकर आश्चर्यचकित भी हूँ कि मौत को आमंत्रण देनें में आज भी व्यक्ति संकोच नहीं कर रहा है।
    प्यारे दोस्तों! मानो या ना मानो घोर कलयुग आ गया है।
    सम्बन्ध जो एक बहुत ही पवित्र और व्यापक अर्थ वाला शब्द था, एकदम संकुचित होकर उपसर्ग और प्रत्यय विहीन निरापद हो गया है।
    प्रगाढ़ संबंध, सार्थक संबंध, विशिष्ट संबंध, अंतरंग संबंध, मेरे खास, प्राण प्रिय, अंतरंग मित्र आदि ये सभी शब्द काल्पनिक से प्रतीत होने लगे हैं या यूँ कहूँ चुभने लगे हंै तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
  • किसी न किसी को, किसी से दूर नहीं किया है।
  • किसी ने किसी को, किसी के पास आने से इन्कार भी नहीं किया गया है।
    पर सभी ने सहज और स्वाभाविक रूप से इसे स्वीकार कर लिया है अर्थात ये मान लिया है कि कोई किसी का नहीं है।
  • सब पक्षियों की भाषा सीख गये हैं।
    सबको सबकी, अनकही शब्द विहीन मूल भावना समझ में आने लगी है।
    यह आम विचारधारा पनप चुकी है कि पुस्तकीय ज्ञान अब जीने का आधार नहीं है। अब अंतर्मन के भाव या प्रत्यक्ष ज्ञान ही जीवन का मार्ग प्रशस्त कर सकता है।
    शिक्षापरक नीति ग्रंथों की पुस्तकों को समेट कर लोगों ने ऐसे स्थान पर रखना आरम्भ कर दिया है जहाँ अनुपयोगी सामग्री रखी जाती है।
    यह सब हर किसी की जुबान पर है कि-
    होवेगा सोई जो राम रचि राखा
    लेकिन कुछ मेरे जैसे लोग समय को सहज भाव से व्यतीत करने के लिए आज भी पुस्तकों को मित्र बनाए हुए हैं क्योंकि और मित्र तो छोड़ गए, यहां तक कि जहां एक सामान्य व्यक्ति के पास दिन भर में कम से कम 20 फोन, विशिष्ट व्यक्ति के पास 50 या 100 फोन आते थे आज घटकर उनकी संख्या 5 हो गई है। आज किसी को भी आपके समाचार पूछने तक की फुर्सत नही हैं।
    ऐसा क्यों हो रहा है?
    स्पष्ट बात यह कि आपके साथ आपके अभिन्न कहे जाने वाले मित्रों के महज औपचारिक संबंध रह गए हैं यही वास्तविकता है।
    अब वे आपसे दूर ही रहना चाहते हैं यह आपको भली-भांति बिना कहे समझ जाना चाहिए। हमें परवरदिगार का शुक्रगुजार होना चाहिये कि उसने हम सबको एक एक छलनी दी है।
    सखाओ! इस समय का सदुपयोग करो। आत्ममंथन व आत्मचिन्तन करो अपने जीवन को छलनी में रखकर छानलो फिर ये अवसर पता नहीं कब मिलेगा?
    निसंदेह ये आत्मविश्लेषण के दिन हैं।
    प्रियजनों! मनुष्यत्व शांत है, स्थिर है,
    कहीं-कहीं मंद गति से चल रहा है।
    हाँ पर एक बात अवश्य है क्रूरता, दुष्टता, पापाचार, निर्दयता, निर्ममता और नित्यप्रति हो रहे अनैतिक व्यवहार व अत्याचारों के साथ-साथ दुर्घटनाओं में भी अवश्य विराम लगा है यह सब पंडित या मौलवी, पीर या पठान गुरु अथवा संतों के कहने पर नहीं रुका है अपितु मृत्यु के भय से विधर्मियों ने अपनी दुष्ट प्रवृत्ति का परित्याग स्वत: ही कर दिया है।
  • अशांत परिवेश शांत पड़ा है,
  • धर्मी और विधर्मी एकांतवास में है ।
  • भोगी भी योगी हो गया है,
  • रोगी एकदम स्वस्थ हो गया है।
  • पागल कहे जाने वाले अब प्रवचन कर रहे हैं।
  • हर अशिक्षित अब तत्काल शिक्षित होकर कलमा पढऩे लगा है।
  • एक नहीं अपितु पूरा परिवार अब आस्तिक हो गया है देखो सब मिलकर अपने इष्ट देव की जोर जोर से आराधना कर रहे हैं।
    मित्रों, मन्दिरों व मस्जिदों, गुरुद्वारो तथा चर्च की छतों पर चढ़कर परमपिता परमात्मा के नुमाइंदो ने यह घोषणा स्पष्ट शब्दों में कर दी है कि-
    … हे संसार के जीवित प्राणियों! महाविनाश महामारी के मद्देनजर हम अनिश्चित काल के लिये अपने दरवाजे आप सांसारिक प्राणियों के लिये बन्द कर रहे हैं, क्यूँ कि हम आपके कुकृत्यों को देख-देखकर बहुत थक चुके हैं व हैरान भी हैं।
    हे दुरात्माओं! आपने हमारी प्रतिमाओं को और स्थानों को मनोरंजन का साधन बनाया है। आमोद प्रमोद और विनोद एवं धनार्जन का स्थान बनाया है। आप सब ने हमारे द्वारा रचित मानव सभ्यता और संस्कृति को मलीन और दूषित किया है यहीं नहीं आपने हमारे द्वारा रचित सुसज्जित प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करते हुए उसे विनिष्ट किया है। तुमने जल, थल, नभ में इतना वातावरण प्रदूषित कर दिया है की हमें भी श्वांस लेने में कठिनाई होने लगी है।
    अत एव हे कृतघ्न प्राणियों! निसंदेह तुम्हारे अपराध अक्षम्य है लिहाजा तुम्हारे उक्त समस्त अपराधों के मद्देनजर, मुझ परमात्मा की सत्ता तुम्हें यह सजा सुनाती है कि तुम समस्त संसार के प्राणी घुट-घुटकर मरोगे। तुम्हारी अकाल मृत्यु होगी, तुम्हें कोई अग्नि देने वाला भी नहीं मिलेगा, यहां तक कि तुम्हारे परिजन भी तुम्हारी कलंकित देह को छूना भी पसंद नहीं करेंगे।
    हे संसार की दुरात्माओं! तुमने मेरे द्वारा रचित सृष्टि के साथ अमानत में खयानत की है लिहाजा यह परमसत्ता संपूर्ण विश्व में अपने-अपने स्थानों पर जहाँ-जहाँ मेरे अंश विराजित है चाहे वह मंदिर हो या मस्जिद, गुरुद्वारे हो या चर्च अथवा अन्य कोई भी स्थान, इन सबके दरवाजे तब तक बंद करने का हुक्म देती है जब तक मानव सभ्यता में मनुष्य पूर्णरूपेण मानवता को पुनर्जीवित ना कर दे तथा प्रकृति और संस्कृति पल्लवित और पुष्पित पोषित ना हो जाए। पृथ्वी, आकाश और पाताल में पर्यावरण शुद्ध ना हो जाए तब तक यह परमसत्ता तुम समस्त सांसारिक प्राणियों से संबंध विच्छेद करती है।
    मित्रों! ये यथार्थ है कि महाशक्ति सांसारिक प्राणीयों में सबसे अधिक मनुष्यों से रुष्ट भी है और क्रोधित भी है। आप प्रत्यक्ष देख सकते हैं कि परमसत्ता की इस मूकघोषणा या निर्णय से सांसारिक लोगों की आँखें तो खुली है।
  • पूंजीपति अपनी पूंजी खर्च तो करने लगे हैं।
  • कृपणों की तिजोरियों के ताले खुलने लगे हैं।
    मित्रों, जो वातानुकूलित संपूर्ण सुविधायुक्त, प्रासाद अथवा होटल थे उन पर आज पक्षी निश्चिन्त होकर गुटरगू कर रहे हैं।
    मित्रों, बख्त की नजाकत देखिये उन होटलों और तथाकथित प्रासादो में जब कोई गरीब मांगने के लिए घुस जाता था तब उन्हें कीटनाशक रसायनों से धोया जाता था। आज वह उन्हीं गरीब और पीडि़त लोगों का आशियाना बने हुए हैं उनके मालिक आज इतने रहनुमा हैं कि कोई गरीब वह पीडि़त वहां आकर ठहर जाए तो उस होटल का मालिक यह समझ रहा है कि अब तो ऊपरवाला उसे अवश्य जन्नत नसीब करवाएगा।
    मित्रों! काश यह असमानता, यह ऊँच-नीच का भेदभाव, ये जाति-पाति के बंधन, ये धार्मिक विविधतायें नहीं होती तो आज हमें यह दिन नहीं देखने पड़ते।
    स्वजनों! आप मानो या ना मानो-
  • चिंन्ता, चिता और चिन्तन प्रत्यक्ष दिखाई दे रहे हैं।
  • व्यक्ति सुकून से साँसे इसलिए नहीं ले रहा है क्योंकि आज वह अपनी सांसों की बचत कर रहा है, वह साँसो की सीमा और गिनती से भली-भांति वाकिफ हो गया है।
    विधि की विडंबना देखो आज
  • रोने वाले हँस रहे है (गरीब देश)
  • और हँसने वाले रो रहे हैं (अमीर देश)
    विधवाओं में आज इसलिये खुशी है क्यूँ कि उनकी सखियों की संख्या में दिन दूनी और रात चौगुनी वृद्धि हो रही है।
    आज हर कोई ये कह रहा है कि-
    समय को कोई भरोसो नाहीं या कद पलटी मार जावे
    प्रियजनों! अंत में यही कहना चाहूंगा कि आप और हम परमात्मा की सबसे सुंदरतम कृति हैं।
    परमात्मा की सत्ता सर्वोपरि है उसके निर्दिष्ट निर्देशानुसार, निर्देशित नियमानुसार हमें प्रकृति और पर्यावरण को संरक्षण देते हुए, मानवीय जीवन मूल्यों और मानव सभ्यता एवं संस्कृति की रक्षा के लिए कृतसंकल्प होना चाहिए और जब तक शरीर में प्राण है धरनी माँ का कर्ज उतारें। आओ हम सब मिलकर यथार्थसत्ता का सम्मान करें परम सत्ता को स्वीकार करें।
    इन्हीं शब्दों के साथ अपनी लेखनी को विराम देता हूँ, कि चाहें आप मेरे विचारों को मानो या ना मानो पर सत्य को स्वीकार करो और अपनी नजर में जिंदा रहो एक उर्दू के शायर ने क्या खूब लिखा है की-
    अपनी माझी से ना शर्मिंदा रहो,
    रोज सूरत बनके ताबिन्दा रहो,
    मौत से बचने की यह तरकीब है कि,
    दूसरे की नजर में सदा जिंदा रहो।
  • प्रोफेसर रामकेश आदिवासी
    सह आचार्य, संस्कृत
    राजकीय महाविद्यालय, गंगापुर सिटी