बदलता परिवेश, भटकते युवा

आज एक ऐसा विषय जिसने संपूर्ण जनमानस को झकझोर कर रखा हुआ है, ऐसा यक्ष प्रश्न जो संवेदनशील मानव के अंतर्मन को दुख भी देता है, व्यथा भी पैदा करता है, सोचने के लिए मजबूर करता है, नैतिकता के उपदेश देने के लिए मजबूर करता है ,परंतु समाधान के विषय में सोचते हैं तो अंततः मानव हार मान कर ठगा सा महसूस करता है। मैं आपको ले जाना चाहता हूं ,जिसे आप दरिंदगी कहे, दुष्कर्म कहें,’ बलात्कार कहे, बहसईपन कहें, राक्षस वृत्ति कहें, अज्ञान कहें या भ्रमित युवाओं की भ्रमित मानसिकता कहें। व्यक्ति की अनैतिक राक्षसी प्रवृत्ति की पराकाष्ठा कहें, सबका अर्थ एक ही है। परंतु इसके पीछे कारण क्या है जिस भारत मां की मातृभूमि में जीवन मूल्य, नैतिकता, मर्यादा, सच्ची मित्रता, सदाचार, मानवीयता, सहयोग और दया का भाव अनमोल निधि के रूप में समाहित था, तो इस प्रकार की राक्षसी प्रवृत्ति का जन्म सुरसा राक्षसी की तरह क्यों बढ़ता ही जा रहा है ,जिस सांस्कृतिक विरासत में कहा गया है कि-
“जिस देश के चरित्र से संपूर्ण के विश्व अपने चरित्र की शिक्षा लेता है”
उसी देश में यह दरिंदगी का अभिशाप बढ़ता ही गया बढ़ता ही जा रहा है। इसके पीछे कहीं ना कहीं बदलता परिवेश है, जिसमें युवा दिग्भ्रमित है। वास्तव में मानव जन्म सृष्टि की संपूर्ण श्रेष्ठविधा है, परंतु सृष्टि के चतुर चितेरे ने सात्विक वृत्ति वाले व्यक्ति के अंदर कहां से यह तामसिक वृत्तियां पैदा की इसके पीछे कहीं ना कहीं हम और हमारा परिवेश जिम्मेदार है। हम हमारी आने वाली पीढ़ी को वह नैतिक गुणों का स्वर्णिम भंडार नहीं दे पाए, जिससे वह अपने चरित्र की रक्षा कर सात्विक प्रवृत्तियों की ओर अग्रसर होकर श्रेष्ठ मानव का जीवन जी पाए और श्रेष्ठ आचरण कर सके।
इसके पीछे व्यक्ति की जन्मजात प्रवृत्ति का आधार, उसके साथ माता पिता के जो संस्कार संतान के प्रति होने चाहिए थे। उनमें अपनापन का बीज प्राचीन समय मेंमाता पिता देने में सक्षम थे परंतु वर्तमान में भौतिक मनोवृति और समाज के द्वारा केवल आर्थिक उन्नति को ही सामाजिक प्रतिष्ठा के दायरे में सर्वोच्च स्थान देने के कारण माता पिता उसी को बढ़ाने में या अभिवृद्धि करने में संतुष्टि महसूस करता है और बालमन कुंठित मनोवृत्ति से सम्मिलित होकर धीरे-धीरे कुप्रवृत्तियों की ओर अनायास ही बढ़ने लगता है। जिसका आभास मात्र भी अभिभावकों को नहीं हो पाता, क्रमिक विकास की इस धारा में किशोरावस्था में पहुंचते ही संस्कार विहीन सहपाठियों के सत्संगति से कुंठित एवं कुप्रवृतियां और भी अधिक भयावह स्थान को प्राप्त कर लेती हैं, और नैतिकता, मर्यादा, संस्कार और चरित्र एक कोने में सिसकती हुई नजर आती है, धीरे-धीरे उसका शारीरिक विकास प्रकृति के नियम अनुसार अभिवृद्धि को प्राप्त होता है और वैचारिक संवेदनाएं शारीरिक अनुभूतियां उसको अपनी ओर आकृष्ट करती है। इस वक्त उसके बाल मन में जो संस्कार हैं वह जीवन जीने के लिए जीवन मूल्यों की ओर अग्रसर होता है जिसमें सात्विक प्रवृत्ति का पूर्ण अभाव होता है भौतिक मानसिकता वाले तथाकथित आधुनिक कहे जाने वाले, तथाकथित हाई प्रोफाइल कहे जाने वाले, इन संस्कारों में किशोर वह युवा दिग्भ्रमित हो जाता है और बदलते परिवेश में उसका आचरण तार तार हो जाता है, इस कारण से दरिंदगी का अभिशाप बढ़ता ही जा रहा है। इसके लिए बदलता परिवेश और हम कहीं न कहीं जिम्मेदार हैं, वर्तमान में जब रात्रि के बाद जब नींद खुलती है, समाचार पत्र ,सोशल मीडिया या टीवी चैनल या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, का जब हम पहला क्लिक करते हैं, तो उसमें कहीं न कहीं अनाचार, दरिंदगी , दुष्कर्म, हत्या और बलात्कार का समाचार हमें प्रतिदिन देखने को मिलता है परंतु उस समाचार को जिसके साथ घटित हुआ है उसका मानते हुए क्षणिक विचार करते हुए और हम आपाधापी की जिंदगी में फिर व्यस्त हो जाते हैं और हमारा नैतिक धर्म भूल जाते हैं। इसके पीछे बहुत बड़ा कारण है, यदि किसी संप्रदाय विशेष की युवा लड़की या स्त्री के साथ यह घटनाएं घटित होती है, तो दूसरा संप्रदाय अंतर्मन में सुकून महसूस करता है। दूसरे संप्रदाय के साथ यह घटना घटित होती है ,तो एक संप्रदाय अपने आप में सहजता महसूस करता है। एक जाति के साथ यह घटना घटित होती है, तो संकीर्ण मनोवृत्ति के कारण दूसरी जाति सहजता का महसूस करती है। एक धर्म के व्यक्ति के साथ घटना घटित होती है, तो दूसरे धर्म के व्यक्ति सहजता का अनुभव करते हैं क्या यही इंसानियत है, क्या यही सांस्कृतिक विरासत है, क्या यही हमारा धर्म है, क्या यही हमारे धार्मिक विरासत की प्रवृत्तियां है। इसके पीछे कहीं ना कहीं समाज का बदलता परिवेश, विचारधारा, स्वार्थ और धार्मिक कट्टरता जिम्मेदार है। राजनीतिक विद्वेषता के वशीभूत होकर के घटनाओं में कुछ तथाकथित समाजसेवी अपनी स्वार्थ की राजनीति को चमकाने के लिए मगरमच्छ के आंसू बहाने पहुंच जाते हैं और अखबार की सुर्खियों में अपना स्थान प्राप्त कर लेते हैं। इसी दौर में सामाजिक नेता जो अपने जाति संप्रदाय के ठेकेदार हैं, वह भी निहित स्वार्थ की मानसिकता से समाज में अपना नाम चमकाने के लिए घड़ियाली आंसू बहाने और अत्याचार से द्रवित हुए परिवार जन के साथ कुछ समय के लिए सद्भावना का झूठा दिखावा करता है ।
मित्रों यह कड़वा सत्य है, जहर का घूंट है, सुनने पर पढ़ने पर बहुत बुरा लगेगा पर यह कहीं न कहीं सच्चाई है। क्या एक धर्म, क्या एक जाति, क्या एक संप्रदाय कि किसी भी स्त्री या बालिका के साथ में दुराचार अनाचार दुष्कर्म होता है , तो क्या संवेदनात्मक स्थितियां इन ढोंगी जनप्रतिनिधि ,सामाजिक नेताओं के समक्ष बदल जाती हैं, यद्यपि क्योंकि मानव इकाई तो एक ही है। तो क्यों नहीं इस प्रकार की स्थितियों में हम राजनीति, धर्म, संप्रदाय जाति आदि से ऊपर उठकर दुष्ट प्रवृत्तियों के शिकार हुई युवा पीढ़ियों का सामूहिक एवं सार्वजनिक बहिष्कार करें।
युवा पीढ़ी की दुष्प्रवृत्तियों का बहिष्कार करना, यद्यपि एकमात्र रास्ता नहीं है, इसके लिए सरकार की वैधानिक व्यवस्था ने विभिन्न प्रकार के कठोर से कठोरतम दंड की व्यवस्था की है, और ऐसे दुष्कर्मी और दुराचारियों को दंड मिला भी है ,परंतु फिर भी यह दरिंदगी रुकने का नाम नहीं ले रही, इसके पीछे कहीं न कहीं पाशविक प्रवृत्ति कारण है, वैधानिक व्यवस्थाएं अपना कार्य कर रही हैं, परंतु मित्रों हमारा भी अपना एक कर्तव्य है कि किस प्रकार से इस दिग्भ्रमित युवा पीढ़ी को हम सही रास्ते पर लाएं उनके अंदर पल रही पाशविक के प्रवृत्ति को मानवीय प्रवृत्ति की ओर सात्विकता की ओर ले जाएं। इसके लिए हमें एक दूसरे धर्म, संप्रदाय, जाति के सिद्धांतों की बुराई करके संस्कृति के सिद्धांतों का जो उपहास उड़ा रहे हैं, कहीं न कहीं कारण है। हमारे युवा पीढ़ी को समझना होगा और नागरिक को इन युवा पीढ़ियों के अंतः पटल के अंदर नैतिकता के भाव को जन्म देना होगा। यदि इसी प्रकार की वृत्तियां लगातार चलती रही तो वह दिन दूर नहीं जब यह युवा पीढ़ी दिन प्रतिदिन और अधिक वहशिपन की ओर अग्रसर होती रहेगी। मित्रों ज्यादा दूर कहीं नहीं हम अपने परिवार भावी युवा पीढ़ी को ही कम से कम नैतिकता, सदाचार और सात्विक प्रवृत्तियों का जन्म देकर कुत्सित मानसिकता और दुष्टप्रवृत्तियों से निजात दिलाएं।
हमारा सब का कर्तव्य बनता है कि हम उनकी भावनाओं को समझें उनकी व्रतियों और व्यवहार को समझें उन्हें सत्य मार्ग और सन्मार्ग की ओर प्रेरित करें। उन्हें खाली समय में रचनात्मक कार्य करने के लिए प्रेरित करें। युवा पीढ़ी भावी भविष्य को लेकर अत्यंत संदेहास्पद है, इसलिए उनकी मूल प्रवृत्ति को समझकर उनके अंदर समय की सदुपयोगता और व्यस्तता को बढ़ाना पड़ेगा तथा सभी को सोचना पड़ेगा नहीं ,तो यह समस्या दिनोंदिन बढ़ती जाएगी और हम कुछ नहीं कर पाएंगे। अतः इस बदलते परिवेश में भ्रमित युवाओं को श्रेष्ठ मार्ग की ओर ले जाने के लिए बुद्धिजीवियों और सकारात्मक सोच वाले नागरिक बंधुओं को आगे आना होगा और एक विजन की तरह एक लक्ष्य की तरह इस कार्य को करना होगा अन्यथा इसके परिणाम सभी को भोगने पड़ेंगे। यह सिसकियां, यह हत्याएं, यह दरिंदगी, वर्तमान स्थितियों से कहीं अधिक भयावह रूप में आपके समक्ष खड़ी मिलेगी। अतः हम सब को जागरूक होना पड़ेगा, हमारी धार्मिक परंपराओं को नैतिक मर्यादाओं को और जीवन मूल्यों को जीवन का एक हिस्सा बनना पड़ेगा, यही सबसे बड़ा वर्तमान परिदृश्य में धर्म होगा। राष्ट्र निर्माण में कहीं न कहीं हमें युवा पीढ़ी को सन्मार्ग की ओर लगाने के लिए आत्म अवलोकन करना जरूरी है और आत्म अवलोकन कर श्रेष्ठता की ओर ले जाने का प्रण लेना पड़ेगा।

डॉ. बृजेंद्र सिंह, प्राचार्य, अग्रवाल कन्या महाविद्यालय, गंगापुर सिटी
(यह लेखक के अपने स्वतंत्र विचार है, इसमें किसी व्यक्ति, जाति और संप्रदाय की भावनाओं को आहत करने का उद्देश्य नहीं है।)