‘यादों के दरीचे’ – तेरहवीं किश्त

अगर, डाकू किसी का अपहरण करें तो अमूमन किसी खौफनाक अंजाम की कल्पना ही की जाती है, किन्तु कुछ मामले बिरले भी हुए हैं। कहते हैं, एक दफा हिन्दी के विख्यात कवि गोपालदास नीरज को मुरैना के कवि सम्मेलन से लौटते समय डाकू मानसिंह के गिरोह के व्यक्तियों ने फिरौती के लालच में उठा लिया था और जब नीरज ने मानसिंह के सन्मुख बगैर भयभीत हुए, अपने गीतों की कुछ पंक्तियां पेश कीं तो वह, वाह! वाह! कर उठा था। उसके बाद मानङ्क्षसह के अनुरोध पर उस डाकू गिरोह के मध्य नीरज ने अनेक गीत पढ़े। दस्यु सरदार ने भी मानपूर्वक मानदेय देकर कविवर को बाकायदा घर पहुंचवाया। भारी भरकम कवि शैल चतुर्वेदी का भी अपहरण हास्य कवि सुरेंद्र शर्मा ने अपनी चार लाइनां में एक दफा करवा दिया था और संयोग देखिए कि हमारे स्तंभ लेखक का भी एक बार एक डाकू ने अपहरण कर लिया था तथा मुक्ति के एवज में फिरौती भी मांगी थी। प्रस्तुत किश्त में आप उस घटना के बारे में विस्तार से पढेंगे। करौली के इतिहास लेखक दामोदर लाल गर्ग तो शौकिया तौर पर ही चंबल के दस्यु पीडि़त इलाके में जा घुसे थे तथा डाकुओं के साथ कुछ फोटो खिंचा आए। इसी क्रम में दीगर यह है कि उस जमाने में डाकुओं के कुछ सिद्धांत हुआ करते थे। वे संतों, विद्वानों और स्त्रियों का सम्मान करते थे। डाकू सुल्ताना ने सदैव अंग्रेजों को ही लूटा और वह लूट गरीबों में बांटी। मूंछों के धनी करणा भील ने पाकिस्तान में ही डकैती डाली थी। केलवाडा (जिला बारां) में एक महिला अपने डाकुओं द्वारा अपहृत पति को छुड़ाने के लिए अकेली ही शाहबाद के घने जंगलों में जा घुसी थी, दुर्दांत डाकुओं ने उस साहसी महिला का मान रखा और उसके पति को छोड़ दिया। यह वही शाहबाद का जंगल था जहां से अपहृत किए गए एक तहसीलदार को छुड़ाने में राज्य सरकार को पसीना आ गया था। यहां हम आक्रांत क्षेत्र का नक्शा, दो चित्र और एक पोस्टर प्रकाशित कर रहे हैं। गलमुच्छों में करणा भील, सिपाहियों से घिरे डाकू सुल्ताना है। फिल्मी पोस्टर भारत की पहली महिला डकैत पुतलीबाई का है, जिसकी एक कव्वाली ‘बड़े बेशर्म आशिक हैं ये आज के…’ ने एक जमाने में धूम मचा दी थी। चुनांचे, अब चलें उपाध्यायजी के यादों के दरीचे की तेरहवीं किश्त में…

प्रभाशंकर उपाध्याय, साहित्यकार

अब, हमारी धज देखिए। दसवीं की परीक्षा में प्रथम श्रेणी आने पर हम सातों आठों छात्र हीरो हो गए। मेरे तो सारे पाप ही धुल गए थे। यहां पाप का तात्पर्य जासूसी उपन्यासों के शौक से है। माता-पिता भी यह सोचकर निश्चित हो गए कि यह लड़का दिखता तो बेपरवाह है पर पढाई के प्रति खासा गंभीर है। अत: उनकी ओर से टोका-टोकी भी तकरीबन खत्म हो गयी थी। अध्यापकों ने भी यही सोचा कि ये लड़के सेल्फ स्टडी में माहिर हैं, अत: अब, उनका ध्यान दूसरे विद्यार्थियों की ओर केन्द्रित हो गया था। दसवीं में जो अध्यापक हमें दबी
जुबान से ट्यूशन करने का सुझाव दिया करते थे, उन्होंने भी अब खामोशी अख्तियार कर ली थी। हालांकि, हम अब भी आगे की पंक्तियों में ही बैठते थे किन्तु सत्य तो यह था कि कम-अज-कम मेरा रूझान अब उपन्यासों की ओर और अधिक बढ गया था। उसके पीछे यह सोच भी थी कि बोर्ड परीक्षा में ही प्रथम श्रेणी आ गयी तो ग्यारहवीं में भला क्यों न आएगी? यानि मेरे ओवरकांफिडेंस ने यहां भी मेरा पीछा नहीं छोड़ा था और उसका परिणाम यह रहा कि ग्यारहवीं में मेरी द्वितीय श्रेणी आयी।
इसके आगे के अध्ययन के लिए मुझे अजमेर जाना पड़ा क्योंकि रेलवे कर्मचारियों के बालकों के लिए वहां एक हॉस्टल संचालित होता था। ग्यारहवीं की परीक्षा में द्वितीय श्रेणी प्राप्त होने का खामियाजा मुझे यहां आकर भुगतना पड़ा। अजमेर के राजकीय महाविद्यालय के प्रथम वर्ष विज्ञान में मुझे प्रवेश नहीं मिला। अत: डी.ए.वी. कॉलेज में दाखिला लेना पड़ा। 1971 में गंगापुर से सात विद्यार्थी उस रेलवे हॉस्टल में गए थे और जब परीक्षा परिणाम आया तो सिर्फ दो लड़के ही उत्तीर्ण हुए थे। एक मैं और दूसरा ओमप्रकाश शर्मा। उसके बाद द्वितीय वर्ष में भी हम दोनों ही उत्तीर्ण हुए थे। लेकिन तृतीय वर्ष में मेरे अध्ययन में दो बड़ी बाधाएं आयीं। मेरी परीक्षाओं से कुछ दिन पूर्व गंगापुर के हमारे नया बाजार स्थित घर के सामने वाली गली में पोस्टमैन ने प्रवेश किया। माताश्री किसी काम से बाजार जा रही थीं कि पोस्टमैन उन्हें गली के मुहाने पर ही मिल गया। उसने पिताजी के नाम लिखा एक पत्र उन्हें थमाया। पत्र में लिखे समाचार को जानकर माताजी को चक्कर आ गया। वे पास की दुकान के आगे लगी पट्टियों पर बैठ गयीं और जोर जोर से रोने लगीं। बाजार के लोग वहां जिज्ञासावश एकत्र हो गए कि क्या हुआ? पता चला कि इनका जो बेटा अजमेर में पढ रहा है उसका किसी डाकू अग्नि ठाकुर ने अपहरण कर लिया है और एक चिट्ठी भेजकर फिरौती मांगी है। संयोगवश, पत्रकार रामसिंह खटाना भी उधर से गुजर रहे थे कि भीड़ देखकर वहां रूक गए। मामले की गंभीरता को लक्षित कर उन्होंने पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराने को कहा। खबर पाकर, पिताजी अपनी ड्यूटी से दौड़े चले आए। पुलिस में जाने से पहले उन्होंने फोन पर बात कर इस घटना की पुष्टि कर लेना उचित समझा। लेकिन समस्या यह थी कि अजमेर में किस जगह फोन किया जाए, जहां से मुझसे संपर्क हो जाए? हमारे हॉस्टल में फोन सुविधा नहीं थी। तभी पिताजी को ध्यान आया कि देवी स्टोर्स वालों के रिश्तेदार अजमेर में रहते हैं और उनके वहां फोन भी लगा हुआ है। अतएव् पिताजी देवी स्टोर्स पर गए। और वहां से अजमेर के लिए अर्जेंट ट्रंक कॉल बुक कराया गया। इंतजार में पूरा दिन बीत गया और लाइन मिली रात को। अजमेर से जवाब मिला कि अभी हॉस्टल का गेट बंद मिलेगा अत: सुबह वहां जाकर वास्तविक स्थिति पता करते हैं। सवेरे, लगभग आठ बजे वे लोग मेरे पास हॉस्टल में आए। मैं अपने दैनिक कार्यों से निवृत हो रहा था। उन्होंने कहा, अरे…’तुम तो ठीक हो।’ यह, ‘डाकू वाकू का चक्कर क्या है?’
मैं मुस्कराया, ‘मैं बिल्कुल ठीक हूं, चाचाजी!’
‘तुम्हारा तो किसी अग्नि ठाकुर ने अपहरण कर लिया था? ‘
मैंने हंसकर कहा, ‘चाचाजी, आज के नवज्योति में अभी आधा घंटा पहले ही मैंने अपने अपहरण की खबर पढी है। ‘
वे चौंके, ‘अरे! यह समाचार अखबारों में भी आ गया, कैसे? ‘ – प्रभाशंकर उपाध्याय, साहित्यकार