यादों के दरीचे- चौथी कड़ी

गतांक से…इस माह विश्व रेडियो दिवस था। अत: इस बार की कड़ी में हम रेडियो के सुनहरे दिनों की याद करते हुए फिलिप्स के पुराने रेडियो सेट तथा रेडियो लाइसेंस का चित्र प्रकाशित कर रहे हैं। रेडियो तथा टी.वी. के संचालन के लिए उन दिनों लाइसेंस बनाना और उसका प्रतिवर्ष नवीनीकरण करवाना अनिवार्य था। अंग्रेजी शासकों द्वारा भारतीयों पर थोपा गया वह कानून 1985 तक चलता रहा था। आकाशवाणी से रात के मुख्य समाचारों में हिन्दी के समाचार वाचक देवकीनंदन पांडेय तथा सीलोन ब्राडकॉस्ट से प्रति सप्ताह अमीन सायानी की लरजती-खनकती दमदार आवाज और बिनाका गीतमाला के बिगुल के गूंजते ही श्रोताओं की वैसी ही भीड़ जमा हो जाती थी जैसी कि दूरदर्शन के चित्रहार के समय होती थी। चूंकि उस वक्त ज्यादातर रेडियो पानवालों की दुकानों पर होते थे अत: वहां पान की गिलौरियों को मुंह में ठूंसे तथा सिगरेट के छल्ले उड़ाते हुए लोग यह कयास लगाया करते थे कि चोटी की पायदान पर इस दफा कौन सा गीत बजेगा? वर्ष के अंत में साल का हिट गीत भी बजता था। वर्ष 1953 से प्रारंभ हुआ यह सिलसिला सन् 2000 तक चलता रहा था। 1953 का हिट गीत था, फिल्म अनारकली का ‘ये जिंदगी उसी की है, जो किसी का हो गया…। ‘ और सन् 2000 का गीत था, फिल्म मोहब्बतें का, ‘हम को हमीं से चुरा लो…। ‘ खबरों के लिए बी.बी.सी. लंदन को भरोसेमंद माना जाता था। लिहाजा, यादों के दरीचे की चौथी किश्त प्रस्तुत है, प्रभाशंकर उपाध्याय की लेखनी से:.

देवी स्टोर्स की अगली पीढी में थे रमेश, महेश और नरेंद्र गोयल। बेहद थुलथुला था, नरेंद्र। वह, एक दफा गंगापुर रेलवे स्टेशन पर, एक रेलगाड़ी के नीचे से निकलने की कोशिश कर रहा था कि अचानक गाड़ी चल दी। प्लेटफार्म पर खड़े, प्रत्यक्षदर्शियों में खलबली मच गयी। सबने सोचा, यह मोटा लड़का तो अब, गया काम से क्योंकि उन दिनों गाडिय़ों के नीचे ब्रेक हेतु स्थित, वेक्यूम की टंकी की ऊंचाई स्लीपर्स से अधिक नहीं होती थी।
बहरहाल, जब गाड़ी गुजरी तो सब, यह देखकर आश्चर्यचकित हो गए कि उसे खरोंच भी नहीं लगी थी। उसने बताया कि जब गाड़ी अचानक रवाना हो गयी तो वह बिना घबराए, फौरन ही पटरियों के बीच स्लीपर्स से चिपक कर लेट गया था। चूंकि उन दिनों स्टीम इंजन से गाड़ी को गति पकडऩे में थोड़ा समय लगता था, अत: नरेंद्र को इतना समय मिल भी गया था। इस तरह, उसने तुरत बुद्धि से काम लेकर अपनी जान बचा ली। उस घटना की सनसनी समूचे गंगापुर में अनेक दिनों तक मची रही थी।
देवी स्टोर पर ही हुए एक वाकये को मेरे पिताजी अमूमन सुनाया करते थे। नौकरी की व्यस्तता की वजह से हमारे घर का हरेक माह का पूरा सामान एक मुश्त आ जाता था। एक दिन, जेब में सौ का नोट डालकर पिताजी वहां पहुंचे और दुकानदार को अपने सामानों की सूची थमा दी। जब, सारा सामान आ गया तो उन्होंने भुगतान के लिए जेब में हाथ डाला तो चौंक गए क्योंकि हाथ में सौ रुपए के स्थान पर दस दस रुपए का नौ नोट अर्थात् नब्बे रुपए थे। पिताजी को विचार में पड़ा देखकर दुकानदार ने पूछा, ‘बाबूजी! किस सोच में पड़ गए? ‘
पिताजी ने कहा, ‘मैं घर से सौ रुपए का नोट लेकर चला था। यहां देखता हूं कि नब्बे रुपए ही हैं, जबकि मैंने रास्ते में भी कोई सामान भी नहीं खरीदा है। ‘ यह सुनकर स्टोर मालिक ने इधर-उधर देखा, कुछ दूर एक छोटा सा लड़का खड़ा हुआ था। दुकानदार ने आवाज लगा कर उसे बुलाया और पूछा, ‘तूने बाबूजी की जेब से रुपए निकाले थे? ‘ लड़के ने सिर हिलाकर हामी भर दी। स्टोर वाले ने पूछा क्यों? वह बोला ‘मुझे दस रुपए की जरूरत थी और मैंने इनकी जेब में हाथ डाल दिया। उसमें से सौ रुपए का नोट निकला तो मैंने पास वाले दुकानदार से उसका छुट्टा करा लिया और फिर नौ नोट इनकी जेब में डाल दिए। ‘
पिताजी बताते हैं कि उस लड़के की हिमाकत और सच्चाई पर मैं दंग रह गया। दुकानदार बोला, ‘पहले भी यह इस तरह की हरकतें कर चुका है, इसीलिए मेरा शक इसी पर हुआ था। मुझे लगता है कि अब, इसके घर पर शिकायत करनी होगी नहीं तो यह लड़का और अधिक बिगड़ जाएगा। ‘
चलिए, हम फिर लौटते हैं, बचपन की तरफ अर्थात् सात-आठ वर्ष की अवस्था की ओर अर्थात् 1961। उस वर्ष गंगापुर सिटी रेलवे लाइन से अनेक रेलगाडिय़ां गुजरी थीं। उन्हें देखकर लोग बोलते थे कि ये सेना की ट्रेन हैं और इनमें सवार होकर सैनिक गोवा को मुक्त कराने जा रहे हैं। विदित हो कि हमारी सेना ने एक दिन में ही बिना किसी खून खराबे के गोवा को आजाद करा लिया था। इसी तरह की ट्रेन 1962 में भी गुजरी थीं। उसमें चीन से हो रहे युद्ध के सैनिक जा रहे थे। वे रेलगाडिय़ां हमारे क्वाटर से साफ नजऱ आती थीं। पर मुझे उनकी धुंधली सी स्मृति ही है। चीन के युद्ध में हमारे जवानों के पास गर्म कपड़े भी नहीं थे, तब रेलवे कॉलोनी की महिलाओं ने उनके लिए स्वेटर और जर्सियां बुन-बुन कर भेजी थीं। देश भक्ति का वह जज्बा वाकई अनूठा ही था।
सन् 1962 में हमारे परिवार में दो नये मेहमान आए। मेरा एक छोटा भ्राता और फिलिप्स का एक रेडियो। उन दिनों चीन से चल रहे युद्ध की जानकारी तथा सीलोन रेडियो स्टेशन से प्रसारित होने वाले बिनाका गीतमाला को सुनने के लिए रेडियो खरीदा गया। प्रसारणों को साफ सुनने के लिए क्वाटर की छत पर दो पोल खड़े करके उनके बीच एक जालीनुमा एरियल उस तरह बांधा गया था, जैसे कपड़े सुखाने की डोर बांधते हैं और फिर वहां से एक तार नीचे रखे रेडियो तक आता था। जिस वर्ष हमारे घर में रेडियो आया, उस वर्ष का बिनाका गीतमाला का नंबर वन रहा गीत भी आपको बता दूं। वह था फिल्म जंगली का ‘अहसान तेरा होगा मुझ पर, दिल चाहता है वो कहने दो…। ‘ यह गाना रफी साहब और लताजी ने फिल्म के लिए अलग-अलग गाया था किन्तु रेडियो के बम्बई स्थित स्टूडियो में इसे मिक्स करके प्रसारित किया गया था। सीलोन रेडियो से हर माह की पहली तारीख को यह गाना अवश्य बजता था, ‘खुश है जमाना आज पहली तारीख है…। ‘ इसी रेडियो स्टेशन से प्रसारित होने वाले अनोखे बोल मेरा पसंदीदा कार्यक्रम था। ऑल इंडिया रेडियो की उर्दू सर्विस से सप्ताह में एक दिन (संभवत: रविवार की दोपहर) किसी फिल्म का साउंड ट्रेक सुनाया जाता था। अगर बिजली निर्बाध आती रहती तो मैं उसे अवश्य सुनता था। पर, यह उन दिनों की बात है जब हम मिडिल स्कूल में पढ़ते थे।
– प्रभाशंकर उपाध्याय साहित्यकार