‘मानो या ना मानो’ (भाग- 2)

आज कोरोना को संरक्षण देने के लिये प्रकृति ने फिर एक बार अंगड़ाई ली, छत्तीसगढ़ में भयंकर ओलावृष्टि के साथ-साथ राजस्थान सहित कई राज्यों के तापमान में अप्रैल माह में भारी गिरावट इस बात का संकेत है कि अभी प्रकृति माँ का कोप शान्त नहीं हुआ।
मित्रों, हजारों वर्ष पहले प्रकृति (अनावृष्टि) और परमसत्ता (श्रीकृष्ण) के बीच संघर्ष हुआ था जिसमें श्री कृष्ण ने स्वजनों की रक्षा करते हुए प्रकृति के कोप को शान्त किया था। तत्कालीन लोग उस अतिवृष्टि से इसलिये बच सके क्योंकि वो प्रकृति प्रेमी थे। उन्होंने प्रकृति के साथ उसकी प्रवृत्ति की पूजा की, प्रकृति का आदर किया। इस कारण उनकी रक्षा हो सकी, फिर क्यूँ ना होती उनके पुरोधा प्रकृति व प्राकृतिक जीवों के संरक्षक श्रीकृष्ण जैसे युगावतारी पुरुष थे।
आज सम्पूर्ण संसार अनीति, अत्याचार, कदाचार, भ्रष्टाचार, व्यभिचार, दुव्र्यसन या यूँ कहूँ कि वस्त्रहरण, जीवहत्या, सजीव व निर्जीव का बलात्हरण अन्तिम सीमा पार कर चुका, तभी कहीं जाकर महामारी जैसी सृष्टिहन्ता बीमारी का प्रादुर्भाव हुआ है।
मित्रों, इसी प्राकृतिक और प्रावृत्तिक अंसतुलन के कारण कहीं ओले, कहीं गोले, कहीं सोले एक ही अनावृष्टि एक ही अतिवृष्टि, कहीं महामारी, कहीं बाढ़, कही झंझावत, कहीं ज्वालामुखी का विस्फोट, कहीं ग्रह-उपग्रहों का प्रकोप, कहीं विक्षोप, कहीं आग्नेय विभीषिका आदि का प्रहार संसार के प्राणियों को झेलना पड़ रहा है। मित्रों इन सब को देखकर तो लगता है कि संसार के प्राणियों का अन्त सुनिश्चित तो नहीं पर अवश्य है।
मित्रों, आज चहुँओर निस्तब्धता और नीरसता है, जैस-जैसे महामारी का ग्राफ बढ़ रहा है वैसे शनै:-शनै: सब कुछ क्षीण होता नजर आ रहा है। ऐसा लग रहा है महानदी क्रोधित उफान शनै:-शनै: अपने किनारों को धराशायी करके स्वयं में मिला रहा है। यही नहीं इस महाउफान ने उन सभी चल-अचल पदार्थ, सजीव-निर्जीव वस्तुओं का मानों एक पल में अस्तित्व ही मिटा दिया हो।
मित्रों, अब तो हर प्राणी की मनोवृति, प्रवृति और प्रकृति, निवृत्ति की ओर उन्मुख है।
सबने जहन में एक ही प्रश्न कि अब क्या होगा?
इसका सीधा सा उत्तर है- प्रकृति करवट ले रही है।
हर इन्सान भी तो सोते वक्त करवट लेता है, आज प्रकृति ने करवट ली तो हम बौखला गए, क्यूँ?
मित्रों सामान्य सी बात है कि जब सहज भाव में जब किसी व्यकित को जब कोई छेड़ता है या उसके कार्य में व्यवधान उत्पन्न करता है तब वह चिड़चिड़ा हो जाता है, उसे क्रोध आता है, वह भी तो क्रिया कि प्रतिक्रिया करता है। उसके भी अन्तर्मन के भाव बदलते हैं, उसकी सहज व सामान्य सी प्रकृति में अनेकानेक विकृतियां उत्पन्न होती है और क्रोध में वह ना जाने क्या-क्या गलत कार्यों को अंजाम दे चुका होता है।
मित्रों, जब उसके क्रोध की ज्वालामुखी ठण्डी होती है तब तक वह आदमी बहुत कुछ खो चुका होता है। जब उसे होश आता है तब वह पश्चाताप की अग्नि में जलता है तब तक उसका बहुत कुछ नष्ट हो चुका होता है।
मित्रों इस स्थिति में उसके व्यक्तित्व पर भी प्रश्न-चिह्न लग जाता है।
उसने कथनों में अविश्वसनीयताऔर अस्थिरता मानी जाती है।
उसके सत्य वचनों को मिथ्या प्रलाप की संज्ञा दी जाती है।
इसलिए कदाचित् प्रत्येक व्यक्ति, जीवन के हर क्षण, हर पल को विचार करके व्यतीत करे तो इन सबसे बचा जा सकता है। पर नहीं, हर व्यक्ति अपने झूठे अहं के पीछे स्वयं के साथ दूसरों को भी उपेक्षित करने में लगा है तो भला प्रकृति क्यूँ नहीं आपकी उपेक्षा करेगी?
मित्रों, आपकी स्वार्थवश, भयवश, आशंकावश, निजतावश मूल प्रवृति बदल रही है ।
आज सन्निकटता में दूरी है,
प्रेमभाव प्रदर्शन आपकी मजबूरी है,
आज आपका प्यार ढकोसला नजर आता है,
मित्रता में किंचित बेईमानी नजर आती है,
सुन्दरता में कुरुपता स्पष्ट झलक रही है,
अपनत्व में किंचित बनावटीपन नजर आ रहा है।
मित्रों सचमुच में विषय बहुत गम्भीर है आज स्थिति ये है कि-
आपका मान अपमान में बदलता जा रहा है,
आपकी शान का अवसान होता नजर सा आ रहा है,
मित्रों, भ्रान्ति की क्रान्ति से तनुमात्र भी मिटता जा रहा है,
देखो दशा भी, बिन दिशा के, दुर्दशा बन रही है आज,
किन्तु अब हम क्या करें? देखो सैलाब उमड़ता आ रहा है।
मित्रों क्रोध की परछाई (चिड़चिड़ापन) से घोर मातम छा रहा है। हर व्यक्ति कुछ ना कुछ करना चाहता है लेकिन कुछ नही कह पा रहा है।
इसलिये मित्रों यथार्थ का सम्मान करो, आत्ममंथन और आत्मचिन्तन की महती आवश्यकता है।
जयतु प्रकृति-जयतु धरणी।
प्रो. रामकेश आदिवासी
सह आचार्य, संस्कृत, राजकीय महाविद्यालय, गंगापुर सिटी