‘यादों के दरीचे’- चौदहवीं कड़ी

किशोरावस्था तक बच्चों की परवरिश में बड़ी सावधानी की आवश्यकता होती है। उनकी हरेक गतिविधियों को माता-पिता द्वारा नजऱ अंदाज कर दिया जाना प्राय: हितकर नहीं होता। कुख्यात डाकू मानसिंह ने बचपन में एक पेंसिल चुराई थी। लेकिन मानसिंह की मां ने उस चोरी को अनदेखा कर दिया था। बाद उसने अनेक छोटी मोटी चोरियां और कीं पर मां उनके प्रति बेपरवाह बनी रही। इस तरह मानसिंह का प्रवर्तन हुआ और अंतत: वह डाकू बना। पुलिस मुठभेड़ में मरते समय मानसिंह के अंतिम शब्द थे कि अगर पहली चोरी के वक्त मां डांट देती तो शायद मैं डाकू नहीं बनता। हालांकि डाकू मानसिंह का अपने इलाके में बड़ा मान था। उसके जीवन पर अनेक नौटंकियां और गीत बनें। 1971 में एक फिल्म भी बनी थी। उसके गांव खेड़ा राठौर में उसका एक मंदिर भी है, जिसमें रोज पूजा की जाती है। परन्तु उस दुर्दांत दस्यु की मन की उस पीड़ा को कितने लोगों ने समझा है? हमारे स्तंभ लेखक के साथ भी उनके एक सहपाठी ने प्रतिस्पर्धा स्वरूप एक गैर जिम्मेदाराना हरकत कर दी थी जिसमें उसके सुसंस्कारित होने का अभाव झलकता है और उसका प्रभाव लेखक के शैक्षणिक केरियर पर प्रतिकूल पड़ा। हम यहां धर्मयुग प़ित्रका की एक पुरानी कतरन प्रकाशित कर रहे हैं, जिसमें लेखक प्रभाशंकर उपाध्याय ने अपने उस संस्मरण को लिखा था और अब उस आपबीती को वे इस चौदहवीं कड़ी में भी व्यक्त कर रहे हैं-

दूरभाष पर संदेश पाकर देवी स्टोर के अजमेर स्थित संबंधियों में से दो जने मेरे अपहरण का सुनकर मेरा हाल जानने आए और उनको जब पता चला कि वह समाचार अखबार में भी आ चुका तो वे आश्चर्यचकित हो गए और मुझसे पूछा कि वह खबर कैसे छपी?
उस समय तो मुझे भी वस्तु स्थिति पता नहीं थी। अत: मैंने अनभिज्ञता जाहिर की। बाद में मुझे पता चला कि उस समाचार को खटाना साहब ने तार द्वारा दैनिक नवज्योति को भेजा था। चूंकि नवज्योति का मुख्यालय अजमेर में ही था अत: वहां के संस्करण में दूसरे दिन ही वह खबर प्रकाशित हो गयी थी। हमारे हॉस्टल में भी वह समाचार-पत्र आता था। मुझे अखबार पढने की लत छुटपन से ही थी अत: सुबह की चाय पीने मेस में ही चला जाता था। इस तरह लगे हाथ, वहां उपलब्ध अखबार को भी पढ लिया करता था। उस दिन भी समाचार पत्र पढने की आदत के फलस्वरूप मैं अपने बारे में छपी उस चौंकाने वाली खबर से रूबरू हुआ था। लेकिन उस वक्त उस समाचार को मैंने गंभीरता से नहीं लिया था किन्तु अब मुझे भी फिक्र हुई। गंगापुर में मेरे घर में तो चिंताओं का सैलाब उमडा हुआ था। लिहाजा, मेरे हाल पूछने आए वे दोनों चाचा मुझे साथ में अपने घर ले आए ताकि फोन द्वारा घर पर मेरी बात करा सकें।
और फिर, अजमेर से गंगापुर के लिए अर्जेंट कॉल बुक हुआ और वह दोपहर को मैच्योर्ड हुआ। बात हुई। मैंने आश्वस्त किया कि मैं ठीक हूं और जैसा पत्र में लिखा है, वैसा कुछ नहीं हुआ है। लेकिन माता-पिता का दिल बेटे को सकुशल देखे बिना नहीं माना। उसी दिन पिताजी ने अजमेर का पास जारी करवाया तथा उसी रात चलकर दूसरेे दिन दोनों अजमेर आ गए। आते ही बोले, ‘अब, तू यहां नहीं रूकेगा। हमारे साथ गंगापुर चल।’
मैंने कहा, ‘बाबूजी! कुछ ही दिनों बाद मेरी परीक्षाएं हैं। बे फालतू एक साल बिगड़ जाएगा।’
पिताजी बोले, ‘कोशिश करेंगे कि तेरा परीक्षा सेंटर बदल जाए पर यहां नहीं रहेगा।’
मैंने कहा, ‘परीक्षा नजदीक हैं। अब, सेंटर बदलने वाला नहीं है।’
पर माता-पिता दोनों ही नहीं माने और मुझे गंगापुर ले आए। पिताजी मुझे करौली कॉलेज ले गए और परीक्षा केंद्र के बदलाव की प्रक्रिया पूछी। कॉलेज वालों ने उसकी संभावना को सिरे से ही नकार दिया। अलबत्ता, प्रिसिंपल साहब ने मुझे यह इजाजत अवश्य दे दी कि मैं लैब्स में अपने बकाया प्रेक्टीकल कर सकता हूं।
जब, पिताजी, कॉलेज प्रिसिंपल को डाकू का वह पत्र दिखा रहे थे तो उसका कागज देखकर मेरा माथा ठनका। वहां तो मैं कुछ भी न बोला किन्तु करौली से गंगापुर लौटते समय मैंने बस में मैंने पिताश्री से उस चिट्ठी को लेकर ध्यान से देखा। वह कागज उस तरह का था जिसका प्रयोग प्राय: विज्ञान के विद्यार्थी अपनी प्रायोगिक कॉपियों के लिए किया करते थे। इस तरह के रजिस्टरों में प्रयुक्त कागज सामने से से लाइनदार तथा पृष्ठ भाग में बगैर लाइन वाला होता है। इन रजिस्टरों में एक ओर चित्र बनाए जाते हैं और सामने
पडऩे वाले लाइनदार पृष्ठ पर उनका वर्णन लिखा जाता है। जासूसी उपन्यासों को पढने का अनुभव यहां काम आया और एक जासूस की भांति मेरी छठी इंद्रिय एकाएक जागृत हो गयी। किसी डाकू के पास वैसा कागज मिलने की संभावना कम ही थी। अत: अब, मैंने पत्र की भाषा और लेखनी पर ध्यान केंद्रित किया। यहां भी भाषा ज्ञान ने मदद की कि किसी डाकू की लेखनी में हमारे क्षेत्र के स्थानीय शब्दों का शुमार कैसे हो सकता है? जहां तक मुझे स्मरण था सवाईमाधोपुर जिले के दस्यु प्रभावित क्षेत्र में उस समय अग्नि ठाकुर नाम का कोई डाकू नहीं था। तो फिर किसी बाहर के डाकू ने हमारे इलाके की बोली के शब्दों का इस्तेमाल कैसे किया? यदि वह डाकू अजमेर के आस पास का है, तो अजमेर के ही स्थानीय शब्द होते क्योंकि मुझे भी अजमेर में रहते लगभग पौने तीन साल हो चले थे अत: उस इलाके के आम व्यवहार में काम आने वाले काफी शब्दों से मैं वाकिफ हो चला था। उस पत्र का एक वाक्य तो मुझे आज तक याद है कि ‘फिरौती कहां देनी है,’ को लिखा गया था कि ‘फिरौती खां देनी है।’
पाठकवृंद, यह भली भांति जानते हैं कि हम गंगापुरवासी प्राय: ‘कहां’ को ‘खां’ ही बोलते हैं। दूसरा सूत्र यह मिला कि किसी बाहर के डाकू को मुझसे संपर्क किए बिना मेरे गंगापुर वाले घर का पता आखिर, खां..से…उंह…माफ कीजिए कहां से मिला? अब, मेरे होठ इब्ने सफी के जासूस विनोद की भांति गोल होकर सीटी मारने लगे।
पिताजी ने डांट लगायी, ‘अरे बेशरम! यह बस है और तू यहां बैठकर सीटी मार रहा है।’ चूंकि पिताश्री उस प्रकरण काफी व्यथित थे। अत: मैंने खुद पर काबू किया और पत्र की इबारत को ध्यान से देखने लगा क्योंकि यह तो निश्चित हो गया था कि उसे मेरे साथ में पढने वाले किसी सहपाठी ने ही लिखा है।
मुझे, वह राइटिंग कुछ जानी पहचानी सी लगी लेकिन याद नहीं आया कि आखिर है, किसकी? यात्रा के दौरान मैं उस बारे मैं सोचता ही रहा।
– प्रभाशंकर उपाध्याय, साहित्यकार